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________________ १२ श्रावकाचार-संग्रह घिग्दुष्षमाकालरात्रि यत्र शस्त्रदृशामपि । चैत्यालोकादृते न स्यात् प्रायो देवविशा मतिः ॥३६ प्रतिष्ठा यात्रादि-व्यतिकरशुभस्वरचरणस्फुरद्धर्मोद्धर्षप्रसररसपूरास्त-रजसः । कथं स्युः सागाराः श्रमणगणधर्माश्रमपदं, न यत्राहदगेहं दलितकलिलोलाविलसितम् ॥३७ मनो मठकठेराणां वात्ययेवानवस्थया। चेक्षिप्यमाणं नाद्यत्वे क्रमते धर्मकर्मसु ॥३८ विनेयवद्विनेतृणामपि स्वाध्यायशालया। विना विमर्शशून्या धो-दृष्टेऽप्यन्धायतेऽध्वनि ।'३९ हिंसायुक्त आरम्भमें फंसे रहनेवाले गृहस्थोंका जिन प्रतिमादिक तथा उन जिनप्रतिमादिकके समान तीर्थयात्रादिक सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके कारणोंकी प्रौढ़ताके द्वारा शोभायमान है स्वाभिमानसे परिपूर्ण हर्ष जिसमें ऐसा मन पुण्यको बढ़ानेवाला होता है। भावार्थ-जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर आदि धर्मके आयतन हैं। इनके निमित्तसे नवीन धर्मकी प्राप्ति, प्राप्त धर्मकी रक्षा और रक्षित धर्मकी वृद्धि होती है, तथा उसीसे धर्मपरम्परा चलती है । आरम्भमें आसक्त गृहस्थोंके मन में इन आयतनोंके निर्माणके अवलम्बनसे अपने जीवनमें एक प्रकारका सत्कृत्य सम्बन्धी गौरवका अनुभव प्राप्त करानेवाला स्वाभिमान रससे युक्त परिणाम होता है और उस परिणामसे पुण्यबन्ध होता है इसलिये श्रावकको भक्ति और शक्तिके अनुसार जिनमन्दिर वगैरह बनवाना चाहिये ॥३५।। इस दुःषमनामक पंचमकाल रूप रात्रिको धिक्कार है जिस पंचमकालमें जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाके दर्शनों बिना शास्त्रज्ञोंकी भी बुद्धि बहुधा परमात्माकी भक्तिमें प्रवृत्त नहीं होती ॥३६॥ जिस ग्राममें कलिकालके प्रभावका नाशक और मुनियोंके धर्मसाधनके हेतु स्थानस्वरूप जिनमन्दिर नहीं होवें उस ग्राममें बिम्बप्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा आदिकके समूहमें पुण्यास्रवका कारणभृत जो स्वतन्त्रतापूर्वक होनेवाला मन, वचन, कायका व्यापार, उससे प्रकाशित होनेवाले धार्मिक उत्सवके विस्तारके हर्षप. जलप्रवाहसे धो डाली है पापरूपी धूलि जिन्होंने ऐसे गृहस्थ कैसे हो सकते हैं। भावार्थ-जहाँ जिनमन्दिर होते हैं, वहां उनके निमित्तसे धार्मिक उत्सव मनाये जाते हैं, उन उन धार्मिक उत्सवोंमें धर्मात्मा लोगोंके एकत्रित होनेसे बड़ा धर्म प्रचार होता है, धर्मके विषयमें उत्साह बढ़ता है और उससे धर्मात्माओंके पापोंका प्रक्षालन होता है । यदि पञ्चमकालकी लीलाके विलासको दलित करनेवाले तथा श्रमणगणोंके आश्रयस्थल और धर्मके आयतन जिनमन्दिर न होवें तो उनके निमित्तसे होनेवाली उपर्युक्त बातें कैसे हो सकती हैं ? इसलिये जिनमन्दिर-हीन ग्राममें श्रावकको नहीं रहना चाहिये ॥३७।। इस पंचमकालमें वायुमण्डलके द्वारा चलायमान रुईके समान रागादिकके परिणमनसे होनेवाली चञ्चलतासे बार-बार चलाय मान वसतिकारहित मुनियों का भी मन आवश्यक आदिक धार्मिक कार्यों में उत्साहित नहीं होता। भावार्थ--जैसे चञ्चल झंझावातसे झोपड़ी स्थिर नहीं रहती, वैसे ही वर्तमानमें बिना ठहरनेकी व्यवस्थाके यतियोंका भी चञ्चल मन उनकी आवश्यक क्रियाओंमें उत्साही नहीं रहता, इसलिये गृहस्थोंको यतियोंके लिये मठोंका निर्माण कराना चाहिये ॥३८॥ शिष्योंकी तरह गुरुओंकी बुद्धि भी स्वाध्यायशालाके बिना ऊहापोहरहित होती हुई परिचित या अभ्यस्त भी शास्त्रके विषयमें या मोक्षमार्गमें अन्धेके समान आचरण करती है। अर्थात् यथार्थज्ञानविहीन रहती है। भावार्थ--जहाँ स्वाध्यायशाला नहीं है वहाँ शिष्योंके समान उपाध्यायोंकी भी बुद्धि तत्त्वोंके ऊहापोहका मार्ग नहीं रहनेसे परामर्शशीलता के साधनके अभावमें अभ्यस्त भी शास्त्र व मोक्षमार्गके विषयमें अन्धो सी हो जाती है, परिमार्जित नहीं रहती। इसलिये स्थान-स्थान पर स्वाध्यायशाला भी स्थापित कराना चाहिये ॥३९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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