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________________ १३ सागारधर्मामृत सत्रमप्यनुकम्प्यानां सजेदनुजिघक्षया। चिकित्साशालवदुष्यन्नेज्यायै वाटिकाद्यपि ॥४० यथा कथञ्चिद्भजतां जिनं निर्याजचेतसाम् । नश्यन्ति सर्वदुःखानि दिशः कामान्दुहन्ति च ॥४१ जिनानिव यजन्सिद्धान् साधुन्धर्म च नन्दति । तेऽपि लोकोत्तमास्तद्वच्छरणं मंगलं च यत् ॥४२ यत्प्रसादान्न जातु स्यात् पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । तां पूजयेज्जगत्पूज्यां स्यात्कारोड्डुमरां गिरम् ॥४३ ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् । न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥४४ उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तः शिवाणिभिः । तत्पक्षता_-पक्षान्तश्चराविघ्नोरगोत्तराः ॥४५ . नियाजया मनोवृत्त्या सानुवृत्त्या गुरोमनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद् विनयेनानुरञ्जयेत् ॥४६ पार्वे गुरूणां नृपवत् प्रकृत्यभ्यधिकाः क्रियाः । अनिष्टाश्च त्यजेत्सर्वा मनो जातु न दूषयेत् ॥४७ पाक्षिक श्रावक, औषधालयकी तरह दुखी प्राणियोंके उपकारकी चाहसे अन्न और जल वितरणके स्थानको भी बनवावे, और जिनपूजनके लिये बगीचा और बावड़ी आदिकका बनवाना दोषजनक नहीं होता ॥४०॥ अभिषेक, पूजन, स्तुति आदि किसी भी प्रकारसे जिनेन्द्रदेवको सेवन करनेवाले निष्कपट चित्त वाले व्यक्तियोंके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो जाते हैं और दशों दिशाएँ इच्छाओंको पूर्ण करती हैं । भावार्थ-सरल भावोंसे जितने भी साधन मिल सकते हैं उतने ही से जिनेन्द्रकी पूजा करनेवालोंके सब ही दुःख दूर हो जाते हैं। वे जिधर जो भी इच्छा करते हैं सब ही जगह उनकी इच्छायें पूर्ण होती हैं। अर्थात् सब दिशाएं उनके मनोरथ पूर्ण करती हैं ॥४१॥ अरिहन्तोंके समान सिद्धोंको, दि० जैन साधुओंको तथा दिगम्बर जैन धर्मको पूजनेवाला व्यक्ति समृद्धिको पाता है। वे सिद्धादिक भी अरिहन्तोंके समान लोकोत्तम शरणभूत और मङ्गल स्वरूप हैं । विशेषार्थ-ये चारों पुण्यवर्धक और पापनाशक होनेसे मङ्गल हैं। परमोत्कृष्ट माननेकी भावनासे लोकोत्तम हैं और दुःखनाशक तथा विघ्नघातक होनेसे इन्हें शरण कहते हैं ॥४२॥ कल्याणका इच्छुक व्यक्ति जिस जिनवाणीके प्रसादसे कभी भी पूजनीय अरिहन्त आदिककी पूजामें शास्त्रोक्त-विधिका उल्लंघन नहीं होता उस जगत्पूज्य तथास्यात् पदके प्रयोगसे सर्वथा एकान्तवादियों के द्वारा अजेय जिनवाणीको पूजे ॥४३।। जो पुरुष भक्तिसे जिनवाणीको पूजते हैं वे पुरुष वास्तवमें जिनभगवान्को ही पूजते हैं क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेन्द्रदेवमें कुछ भी अन्तर नहीं कहते हैं । भावार्थ-भगवान् सर्वज्ञदेवने जिनवाणी और जिनदेवमें अन्तर नहीं बताया है, इसलिये भक्तिभावसे जिनवाणीकी पूजा करना परमार्थसे 'जिनपूजा' ही है ।।४४॥ प्रमाद रहित मोक्षके इच्छुक व्यक्तियों के द्वारा गुरुजन सदा ही पूजे जाना चाहिये। क्योंकि उन गुरुओंके अधीन होकर रहने रूपी गरुड़के पंखोंके भीतर चलने वाले व्यक्ति विघ्नरूपी सोसे दूर हो जाते हैं । भावार्थमुमुक्षुओंको सावधान होकर सदा गुरुकी उपासना करना चाहिये । क्योंकि जैसे गरुड़के पंखोंको ओड़ कर चलनेवालोंके पास सर्प नहीं फटक सकते, उसी प्रकार गुरुभक्ति करने वालोके गुरुओंके अनुभव और सत्संगसे किसी प्रकारका विघ्न नहीं आता ॥४५|| जैसे राजाके हृदयमें अपना स्थान करके राजाके साथ विनयपूर्वक व्यवहार किया जाता है, उसी प्रकार गुरुके प्रति अपनी मनोवृत्ति सरल और अनुकूल बनाकर उनके हृदयमें अपने श्रद्धालुत्वका स्थान बनाकर गुरुको अपने ऊपर प्रसन्न करना चाहिये ॥४६॥ गुरूपासना करनेवाला श्रावक राजाओंके समीपमें विरुद्ध क्रियाओंको नहीं करने वाले सेवकवर्गकी तरह गुरुओंके समीपमें क्रोध हँसी विवाद आदिक विकारजनक और शास्त्रनिषिद्ध सब क्रियाओंको छोड़ देवे और गुरुओंके मनको कभी भी दूषित नहीं करे ॥४७॥ गृहस्थके द्वारा पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश और कालका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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