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________________ सांगारधर्मामृत नीराद्यश्चारुकाव्य-स्फुरदनणुगुण-ग्रामरज्यन्मनोभि भव्योऽर्चन्दृग्विशुद्धि प्रबलयतु यया कल्पते तत्पदाय ॥३१ दृक्पूतमपि यष्टारमहतोऽभ्युदयश्रियः । श्रयन्त्यहम्पूर्विकया किम्पुनवंतभूषितम् ॥३२ यथास्वं दानमानाद्यैः सुखीकृत्य विधर्मणः । सधर्मणः स्वसात्कृत्य सिध्यर्थी यजतां जिनम् ॥३३ स्त्र्यारम्भसेवासंक्लिष्ष्टः स्नात्वाकण्ठमथाशिरः । स्वयं यजेताहत्पादानस्नातोऽन्येन याजयेत् ॥३४ निर्माप्यं जिनचैत्यतद्गृहमठस्वाध्यायशालादिकं, श्रद्धाशक्त्यनुरूपमस्ति महते धर्मानुबन्धाय यत् । हिस्रारम्भविवर्तिनां हि गृहिणां तत्ताहगालम्बन प्रागल्भीलसदाभिमानिकरसं स्यात्पुण्यचिन्मानसम् ॥३५ उत्पन्न तथा सुन्दर गद्यपद्यात्मक काव्यों द्वारा आश्चर्यान्वित करनेवाले बहुतसे गुणोंके समूहसे मनको प्रसन्न करनेवाले जल चन्दनादिक द्रव्यों द्वारा जिनेन्द्रदेवको पूजनेवाला भव्य सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको पुष्ट करे है जिस दर्शनविशुद्धिके द्वारा तीर्थङ्करपदकी प्राप्तिके लिये समर्थ होता है। भावार्थ-जिनेन्द्र भगवान्को जो सामग्री चढ़ाई जाती है वह दुराग्रहसे लाई हुई, अशोभनीय, परके भोगसे अवशिष्ट तथा अन्यायोपाजित नहीं होनी चाहिये। तथा सामग्री चढ़ाते समय जो पद्य बोले जाते हैं वे काव्यके प्रसाद आदिक गुणोंसे परिपूर्ण तथा श्रवण और कथनसे श्रोता और वक्ताके चित्तको प्रसन्न करने वाले होने चाहिये । इस प्रकार भक्तियुक्त पूजन करनेसे पूजकको दर्शनविशुद्धिकी प्राप्ति होती है। जिसके प्रभावसे वह कालान्तरमें तीर्थङ्कर पदवी पाता है ॥३१॥ अरिहन्त भगवान्के सम्यग्दर्शनसे पवित्र भी पूजकको पूजा, आज्ञा आदिक उत्कर्षकारक सम्पत्तियाँ मैं पहले, मैं पहले इस प्रकार ईर्ष्यासे प्राप्त होती हैं, तो फिर व्रतसहित व्यक्तिको कहना ही क्या है। भावार्थ-जब अविरत सम्यग्दृष्टिको भी अहत्पूजनके माहात्म्यसे पूजा, आज्ञा आदिक अभ्युदयकी प्राप्ति होती है तो फिर अर्हत्पूजा करनेवाले व्रतीको उत्तमोत्तम अभ्युदयकी प्राप्ति क्यों नहीं होगी ? ॥३२॥ निर्विघ्न जिनपूजाकी समाप्तिका इच्छुक व्यक्तिविमियोंको यथायोग्य दान और मान आदिकसे अनुकूल करके और जैनधर्मावलम्बियोंको अपने अधीन करके जिनदेवको पूजे । भावार्थ-पूजा आदिकमें विघ्न सहधर्मी और विधर्मी दोनोंके द्वारा उपस्थित होना सम्भव है, इसलिए निर्विघ्न पूजाकी सिद्धिके लिये दान और सन्मान आदिक उचित उपायोंसे विधर्मियोंको अनुकूल कर लेना चाहिये तथा सहधर्मियोंको भी स्वाधीन कर लेना चाहिये। इसके अनन्तर पूजन प्रारम्भ करनेसे उसमें विघ्न नहीं आते ॥३३॥ स्त्री-सेवन और खेती आदिक करनेसे दूषित है शरीर और मन जिसका ऐसा गृहस्थ कण्ठपर्यन्त अथवा शिरपर्यन्त स्नान कर खुद जिनेन्द्रदेवके चरणोंको पूजे और नहीं किया है स्नान जिसने ऐसा व्यक्ति दूसरे स्नात साधर्मी व्यक्तिसे पूजा करावे। भावार्थ-स्त्री सम्भोग तथा खेती आदिकसे पसीना, तन्द्रा, आलस्य और दुर्बलता आदि होनेके कारण शरीर और मन संक्लेशयुक्त रहता है, इसलिये गृहस्थोंको स्नान करके ही शरीर और मनको शुद्ध करके स्वयं पूजन करना चाहिये। किसी सूतकादि कारणवश अस्पर्श होनेपर अथवा अस्वस्थताके कारण स्नान करना अशक्य होनेपर किसी दूसरे सहधर्मी व्यक्तिको स्नान कराकर पूजन कराना चाहिये ॥३४॥ जो बड़े भारी धर्मसाधनका हेतु है वह जिनबिम्ब, जिनमन्दिर, मठ और स्वाध्यायशाला आदिक अपनी रुचि और आर्थिकशक्तिके अनुसार बनवाना चाहिये, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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