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________________ ४१६ मावकाचार-संग्रह ततः कामाग्निना तप्त एकान्ते प्राप्य सुन्दरीम् । निमज्जति व्रतं त्यक्त्वा सर्व तत्कायकर्दमे ॥७७ ततो भस्मीभवत्येव तपोज्ञानवतादिकम् । कीर्तिपूजाभिमानं च तस्य कामादिसेवया ॥७८ एवं दोषं परिज्ञाय स्त्रीजातं व्रतभङ्गन्दम् । रामासङ्गं त्यजेद्धीमान् यथा दृष्टिविषामहीम् ॥७९ हस्तपादविहीनां च नासिकाकर्णव जिताम् । कुरूपां दूरतो नारी वर्जयेन्मुनिनायकः ॥८० अग्निज्वालोपमा नारी नवनीतसमो नरः । तिष्ठतः कथमेकत्र तावनयं विना नृणाम् ॥८१ मनःशुद्धं भवेत्तेषां तपोज्ञानयमादिकम् । निर्विघ्नेन व्रतं सर्व स्त्रीसङ्गन भजन्ति ये ॥८२ इति मत्वा बुधैस्त्याज्यं नारीसङ्गं कलङ्कदम् । स्वप्नेष्वपि न कर्तव्यं चेहामुत्रादि दुःखदम् ।।८३ कायवाकचित्तयोगं च स्थिरं कृत्वा भजेत्तपः । त्यक्त्वा स्त्रीसङ्गमं यो ना तस्य स्यानिमलं व्रतम् ॥८४ घन्यास्ते भुवने पूज्याः ब्रह्मचर्य चरन्ति ये । उन्मत्तयौवने हत्वा कामारि च तपोऽसिना ॥८५ जन्मेह सफलं तेषां शीलरत्नं सुदुर्लभम् । नार्यादितस्करैर्येषां स्वप्नेऽपि न हृतं क्वचित् ॥८६ ब्रह्मचर्यमहं मन्ये तेषां यौवनान्वितैः । रुद्ध रामादिभिस्त्यक्तं न च प्राणात्ययेऽपि भो ॥८७ यौवनेन्धनसंयोगाद्रामावातप्रप्रेरणात् । सबलाहारतेलेन कामाग्निः प्रकटो भवेत् ॥८८ अभिमान सबको छोड़ देता है। फिर कामाग्निसे सन्तप्त होकर और किसी सुन्दरीको एकान्तमें पाकर सब व्रतोंको छोड़कर पाप कर्ममें डूब जाता है ॥७५-७७॥ तदनन्तर कामसेवन करनेसे उसका तप, ज्ञान, व्रत, कीर्ति, बडप्पन, अभिमान आदि सब जलकर भस्म हो जाता है ॥७८॥ इस प्रकार व्रतोंको भंग करनेवाले स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए दोषोंको समझकर बुद्धिमानोंको जिसके देखने मात्रसे विष चढ़कर मनुष्य मर जाता है ऐसी दृष्टिविष सर्पिणीके समान स्त्रियोंके समागम का त्याग कर देना चाहिये ॥७९|| जिस प्रकार हाथ पैर रहित और नाक कान रहित कुरूपा स्त्रीको छोड़ देते हैं उसी प्रकार व्रतियोंको दूरसे ही स्त्रियोंका त्याग कर देना चाहिये ।८०॥ संसारमें अग्निकी ज्वालाके समान स्त्रियां समझी जाती हैं और मनुष्योंका मन मक्खनके समान समझा जाता है फिर भला वे दोनों एक स्थानमें मिल जानेपर विना अनर्थ किये किस प्रकार रह सकते हैं ॥८१॥ जो पुरुष इस लोक परलोक दोनों लोकोंमें दुःख देनेवाले स्त्रियोंके स्मरणको स्वप्नमें भी नहीं करते हैं संसारमें उन्हींका मन शुद्ध हो सकता है और तप, ज्ञान, यम, नियम आदि सब कुछ उन्हींका पल सकता है जो स्त्रीका संगम नहीं करते हैं, उन्हींके सर्व व्रत निर्विघ्न पलते हैं ऐसा समझकर ज्ञानी जनोंको कलंक देनेवाला नारी-संग छोड़ना चाहिये ॥८२-८३॥ जो पुरुष स्त्रियोंके समागमको छोड़कर मन, वचन, काय तीनों योगोंको स्थिर कर तप करता है संसारमें उसीके व्रत निर्मल रीतिसे पल सकते हैं ॥४॥ जो पुरुष उन्मत्त करनेवाली यौवन अवस्थामें तपश्चरण रूपी तलवारसे कामरूपी शत्रुको मारकर ब्रह्मचर्यको पालन करते हैं संसारमें वे ही पुरुष धन्य कहलाते हैं और तीनों लोकोंमें वे ही पुरुष पूज्य गिने जाते हैं ।।८५॥ जिनका अत्यन्त दुर्लभ शीलरूपी रत्न स्त्री आदि चोरोंने कहीं स्वप्नमें भी हरण नहीं किया उन्हींका जन्म इस संसारमें सफल माना जाता है ।।८६।। जिन्होंने यौवन अवस्थामें अनेक स्त्रियोंसे घिरे रहनेपर भी और प्राण नाश होनेपर भी अपना ब्रह्मचर्य नहीं छोड़ा है उन्हींके ब्रह्मचर्यको में वास्तविक ब्रह्मचर्य मानता हूँ ॥८७॥ यौवनरूपी ईधनके संयोगसे तथा स्त्रीरूपी वायुको प्रेरणासे और पौष्टिक आहाररूपी तेलसे यह कामरूपी अग्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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