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________________ प्रश्नोत्तरभाषकाचार ४१५ घौतवस्त्रस्तथान्यैश्च रागोत्पादककारगैः । स्वशरीरस्य संस्कारं ब्रह्मचारी चरेन च ॥६४ वपुःसंस्कारयोगेन कामाग्निः प्रकटो भवेत् । मत्वेति सव्रती नैव कुर्यात्स्वाङ्गस्य मण्डनम् ॥६५ हावभावविलासाढयां कथां शृङ्गारसंयताम् । स्त्रीणां रागकरां नैव कुर्याच्छ्यान्न सद्यतिः ॥६६ शृङ्गारकथया रागो जायते ब्रह्मचारिणाम् । ततो नश्येद्वतं तस्मात्तां न शृण्वन्ति योगिनः ॥६७ पूर्वानुभूतसम्भोगान् न स्मरन्ति जितेन्द्रियाः । मनोभङ्गमिवात्यन्तरागदं योगिनिन्दितम् ॥६८ कामवह्निज्वलत्येव पूर्व भोगानुचिन्तनात् । ज्ञात्वेति वतिनो भोगं चिन्तयन्ति न पूर्वजम् ॥६९ नार्या समं न कुर्वन्ति हास्यवार्तादिजल्पनम् । गोष्ठी-वासं वचित्प्रीति वतिनश्चित्तशुद्धये ॥७० स्त्रीसंयुक्तालये नैव कुर्यात्सच्छयनाशनम् । स्थिति वा क्षणमेकं हि व्रती पापादिशङ्कया ॥७१ सदिसंयते गेहे केचित्तिष्ठन्ति धोधनाः । न पुनर्योषिदागारे महानिन्द्ये कलङ्कदे ॥७२ नष्टा ये मुनयः पूर्व सङ्गमासाद्य योषिताम् । केवलं श्रयते दक्षः कथा तेषां श्रतार्णवे ॥७३ तपत्येव यथा नीरमग्निना भाजनाश्रितम् । पुसां चित्तं तथा रामाश्रयसञ्जातवह्निना ॥७४ दृष्टिपातो भवेत्पूर्व स्त्रीमुखे स्वल्पचेतसाम् । पश्चाद्भवन्ति सङ्कल्पाः तस्याः सङ्गमहेतवे ॥७५ ततो विजृम्भते कामदाहः सर्वाङ्गतापनः । तेन सम्पीडितो जीवस्त्यजेल्लज्जाभिमानताम् ॥७६ कोमल आसन, धुले हुए वस्त्र, तथा और भी राग उत्पन्न करनेवाले भोगोपभोगोंसे अपने शरीरका संस्कार नहीं करना चाहिये ॥६३-६४।। अपने शरीरका संस्कार करनेसे कामाग्नि प्रगट हो जाती है यही समझकर उत्तम ब्रह्मचारियोंको अपने शरीरका संस्कार कभी नहीं करना चाहिये ॥६५।। ब्रह्मचारियोंको हावभाव विलासोंसे भरी हुई, शृंगारको बढ़ानेवाली और स्त्रियोंमें राग उत्पन्न करनेवाली कथाएँ न कभी करनी चाहिये और न कभी सुननी चाहिये ॥६६।। शृंगारकी कथाएँ कहने सुननेसे ब्रह्मचारियोंको राग उत्पन्न होता है और राग उत्पन्न होनेसे उनका व्रत नष्ट होता है इसलिये ब्रह्मचारी लोग ऐसी कथाएं कभी नहीं सुनते हैं ॥६७।। इसी प्रकार जितेन्द्रिय पुरुष पहिले भोगे हुए भोगोंका स्मरण भी कभी नहीं करते हैं क्योंकि उनका स्मरण करनेसे मनकी स्थिरता नष्ट हो जाती है और मनकी स्थिरता नष्ट होनेके साथ साथ योगियोंके द्वारा निन्दा करने योग्य ऐसा अत्यन्त राग उत्पन्न होता है ॥६८॥ पहिले भोगे हुए भोगोंको स्मरण करनेसे कामाग्नि प्रज्वलित हो उठती है इसलिये व्रती लोग पहिले भोगे हुए भोगोंको कभी स्मरण नहीं करते हैं ।।६९।। व्रती लोग अपना चित्त शुद्ध करनेके लिये स्त्रियोंके साथ न तो कभी हँसी करते हैं न उनके साथ बात करते हैं न कथा वार्ता करते हैं न गोष्ठी-वास (एक साथ बैठना, उठना, चलना आदि) करते हैं और न उनके साथ प्रेम करते हैं ॥७०॥ ब्रह्मचारी व्रती केवल पापोंकी शंका से ही जिस घरमें स्त्रियाँ रहती हैं, उसमें न तो सोते हैं, न बैठते हैं और न क्षणभर वहां रहते हैं ॥७१॥ कोई कोई बुद्धिमान् सांप आदि भयानक जन्तुओंसे भरे हुए घरमें ठहर सकते हैं परन्तु महा निन्द्य और कलंक उत्पन्न करनेवाले स्त्रियोंके घरमें कभी नहीं ठहरते ॥७२॥ पहिले समयमें जो मुनि स्त्रियोंकी संगति पाकर नष्ट हो गये हैं उनकी कथा चतुर पुरुष शास्त्रोंमें सुनते ही हैं ॥७३।। जिस प्रकार अग्निके सम्बन्धसे बर्तनमें रक्खा हुआ जल भी गर्म हो जाता है उसी प्रकार स्त्रियोंके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाली अग्निसे मनुष्योंका हृदय भी तप जाता है ।।७४।। पहिले तो स्त्रियोंमें थोड़ेसे चित्तसे (ऊपरी मनसे) दृष्टिपात होता है अर्थात् मन स्त्रियोंके देखने में लगता है, उनले समागमके लिये मनमें संकल्प होता है। तदनन्तर हृदयमें समस्त शरीरको सन्तप्त करनेवाली कामकी जलन उत्पन्न होती है, उस जलनसे पीड़ित होकर यह जीव लज्जा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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