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________________ ४१४ श्रावकाचार-संग्रह भजन्ति चक्रवतित्वं रत्ननिध्यादिसङ्कलम् । षट्खण्डविभवोपेतं ब्रह्मचर्यफलानराः ॥५१ प्राप्नुवन्ति जिनेशत्वं ब्रह्मरत्नविभूषितम् । चमत्कारकरं लोके वन्द्यं सर्वामरेश्वरैः ॥५२ ब्रह्मसिंहासनासीनो यद्यदङ्गी समीहते । तत्तदेव समायाति पुण्याल्लोकत्रयेषु च ॥५३ किमत्र बहुनोक्तेन संसारे यत्सुखं वरम् । ब्रह्मचर्यफलात्तच्च सर्व सम्प्राप्यते जनैः ॥५४ दुर्लभं स्वर्गलोकेऽयं महाशीलं सुखाकरम् । नराणां सुलभं चात्र तत्कि दक्षैर्न गृह्यते ॥५५ मुक्तिनारी वृणोत्येव शीलाभरणभूषितम् । मुनि रागेण चागत्य का कथा स्वर्गयोषिताम् ॥५६ महारत्नमिवानर्थ्य प्राप्य शीलं नरोत्तमाः । महायत्नं प्रकुर्वन्ति तद्रक्षादिकहेतवे ॥५७ हावभावविलासाढयं वस्त्राभरणमण्डितम् । नारीरूपं न पश्यन्ति ब्रह्मरक्षादितत्पराः ॥५८ स्त्रीरूपदर्शनाच्चित्तं मोमुह्यति न संशयः । इति मत्वा न पश्यन्ति तन्नरा चित्तशुद्धये ॥५९ मोदकादिवराहारं दुग्धात्यन्तघृतादिजम् । न चात्ति सबलाहारं ब्रह्मचारी तदाप्तये ॥६० सबलान्नेन स्यात्पुंसां स्वप्ने शुक्रच्युतिः ध्रुवम् । नार्यादिसङ्गमं प्राप्य भवेद्भङ्गं व्रतस्य भो ॥६१ इति मत्वा त्यजेत्सर्वमाहारं सबलं सदा । विषान्नमिव सुज्ञानी तव्रताक्षयहेतवे ॥६२ मुखप्रक्षालनैनित्यं स्नानाञ्जनविभूषणैः । गन्धमाल्यादिकै गैः कोमलैः शयनासनैः ॥६३ होती है और जिसे सब देव नमस्कार करते हैं ।।५०।। इस ब्रह्मचर्यके फलसे मनुष्योंको नौ निधि, चौदह रत्न और छहो खण्ड पृथ्वीकी विभूतिसे सुशोभित चक्रवर्तीकी विभूति और उपभोग प्राप्त होते हैं ॥५१।। इस ब्रह्मचर्यरूपी रत्नसे सुशोभित होनेवाले मनुष्य तीर्थंकर पदको प्राप्त होते हैं, जो तीनों लोकोंमें चमत्कार करनेवाला है और समस्त देवों वा इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय है ।।५२।। इस ब्रह्मचर्यरूपी सिंहासनपर विराजमान हुआ मनुष्य इस संसारमें जो-जो चाहता है वह चाहे तीनों लोकोंमें कहीं भी क्यों न हो उसके पुण्यके प्रभावसे उसे अवश्य प्राप्त हो जाता है ।।५३।। बहुत कहनेसे क्या लाभ है, थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि संसारमें जो कुछ उत्तम सुख है वह सब ब्रह्मचर्यके फलसे ही मनुष्योंको प्राप्त होता है ॥५४॥ यह सुखकी खानि शीलव्रत स्वर्ग लोकमें भी दुर्लभ है परन्तु इस लोकमें मनुष्योंको सुगमतासे प्राप्त हो जाता है इसलिये चतुर पुरुषोंको क्या वह स्वीकार नहीं करना चाहिये? अवश्य करना चाहिये ।।५५।। शीलव्रतरूपी आभूषणोंसे सुशोभित होनेवाले मुनियोंको मुक्ति स्त्री भी आकर रागपूर्वक स्वयं स्वीकार करती है फिर भला स्वर्गकी देवांगनाओंकी तो बात ही क्या है ॥५६|| उत्तम पुरुष इस शीलव्रतरूपी बहुमूल्य महारत्नको पाकर उसकी रक्षा करनेके लिये महाप्रयत्न करते हैं ॥५७।। इस ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करने में तत्पर रहनेवाले मनुष्य हावभाव विलासोंसे सुशोभित और वस्त्र व आभूषणोंसे विभूषित ऐसे स्त्रीके रूपको कभी नहीं देखते हैं ॥५८। इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियोंका रूप देखनेसे चित्त मोहित हो जाता है यही समझकर उत्तम पुरुष अपने चित्तको शुद्ध रखने के लिये स्त्रियोंके रूपको कभी नहीं देखते हैं ।।५९।। ब्रह्मचारी पुरुष अपना ब्रह्मचर्य पालन करनेके लिये लड्डू आदि अत्यन्त उत्तम पदार्थ, दूध, अधिक धो और पौष्टिक पदार्थ यादिकोंको कभी सेवन नहीं करते हैं ॥६०॥ पौष्टिक आहार करनेसे स्वप्नमें मनुष्योंका वीर्य च्युत हो जाता है तथा स्त्रियोंका समागम मिलनेपर उसके व्रत (ब्रह्मचर्य) का भंग हो जाता है। यही समझकर सम्यग्ज्ञानी पुरुषों को अपने ब्रह्मचर्य व्रतको पूर्ण रक्षा करनेके लिये विष मिले हुए अन्नके समान सब प्रकारके पौष्टिक आहारोंका त्याग कर देना चाहिये ॥६१-६२॥ ब्रह्मचारी पुरुषोंको अपना मुह धोकर सदा स्नानकर, अंजन लगाकर, आभूषण पहिनकर, सुगन्धित द्रव्य लगाकर, माला, कोमल शय्या, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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