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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार वातपित्तादि रोग सर्व नश्यति देहिनाम् । रजन्याहारसंत्यागादिन्द्रियादिकशोषणात् ॥८९ नीरादिकं गृहस्था ये वर्जयन्ति निशि स्वयम् । तांश्च लक्ष्मीः समायाति लोकत्रितयसंस्थिता ॥९० रोगमुक्तं श्रयेत् प्राणी वपुर्लावण्यसंयुतम् । गुणाढ्यं कमनीयं च रात्रिभोजनवर्जनात् ॥९१ भूरिभोगोपभोगाढयं राज्यं सौख्याकरं भुवि । निशाहारपरित्यागाद्भजेत् जीवो न संशयः ॥९२ अनौपम्यं सुखं नणां जायते स्वर्गगोचरम् । देवविभवसम्पन्नं भुक्तादित्यजनानिशि ॥९३ निशीथिन्यां सदाहारं ये खादन्ति खला इह । महारोगा हि स्युस्तेषां कुटवातादिजाः सदा ॥९४ लक्ष्मीः पलायते पुंसां रात्रिभोजनकारिणाम् । भूरिदुःखप्रदं घोरं दारिद्रयं सम्मुखायते ॥९५ अश्नन्त्येव शठा रात्रौ ये भक्तं स्वादलम्पटाः । भूरिपापभरादग्रे श्वभ्रकूपे पतन्ति ते ॥९६ शृगालश्वानमार्जारवषभादिति खलाः । व्रजन्ति परलोकेऽपि रात्रिभोजनलालसाः ॥९७ भिल्लमातङ्गव्याधादिकुलं दारिद्रयसङ्कलम् । रात्रिभोजनसञ्जातपापादने श्रयेन्नरः ॥९८ दोषाढया पापदा घोरा रागान्धा शीलवजिता । कुरूपा जायते नारो भोजनानिशि दुःखदा ॥९९ पुत्रान् दुव्र्यसनोपेतान् सुताः शीलादिवजिताः । बान्धवान् शत्रु तुल्यांश्च भजेन्ना रात्रिभक्षकः ॥१०० अन्धत्वं वामनत्वं च कुब्जत्वं च दरिद्रताम् । दुभंगत्वं कुरूपित्वं पङ्गत्वं शोलहीनताम् ॥१०१ व्यसनत्वं च दुःखित्वं भीरुत्वं च कुकीतिताम् । अल्पायुश्च कुजन्मत्वं पापित्वं विकलाङ्गताम् ॥१०२ सब वशीभूत हो जाती हैं और इन्द्रियोंके वशीभूत होनेसे जीवोंके वात पित्त आदिसे उत्पन्न हुए सब रोग नष्ट हो जाते हैं ॥८९॥ जो गृहस्थ रात्रिमें स्वयं पानी तकका भी त्याग कर देते हैं उनके लिये तीनों लोकोंमें रहनेवाली लक्ष्मी अपने आप आ जाती हैं ॥९०॥ रात्रिभोजनका त्याग करनेसे प्राणियोंके रोग सब नष्ट हो जाते हैं, उनके शरीरमें लावण्यता आ जाती है, अनेक गुण आ जाते हैं और वे सब तरहसे सुन्दर हो जाते हैं ॥९१।। रात्रिभोजनका त्याग करनेसे जीवोंको अनेक भोगोपभोगोंसे भरे हुए और अपरिमित सुखसे भरे हुए राज्यकी प्राप्ति होती है इसमें कोई सन्देह नहीं।।९२।। रात्रिमें आहार पानीका त्याग कर देनेसे जीवोंको स्वर्गके देवोंको विभूतियोंसे सुशोभित निरुपम सुखकी प्राप्ति होती है ॥९३।। जो अज्ञानी सदा रात्रिमें भोजन करते रहते हैं उनके इस लोकमें भी कोढ़ वा वायु आदिके अनेक प्रकारके महा रोग उत्पन्न होते हैं ॥१४॥ रात्रिमें भोजन करनेवाले मनुष्योंकी लक्ष्मी सब भग जाती है और महा दुःख देनेवाली घोर दरिद्रता उनके सामने आ उपस्थित होती है ।।९५।। जो मनुष्य जिह्वाके स्वादसे लम्पटी होकर रात्रिमें भोजन करते हैं उनके महा पाप उत्पन्न होता है और वे अगले जन्ममें नरकमें ही जाकर पड़ते हैं ।।९६।। रात्रिभोजनमें लालसा रखनेवाले मनुष्य मरकर परलोकमें गीदड़, कुत्ता, बिल्ली, बैल आदि नीच गतियों में जाकर उत्पन्न होते हैं ॥१७॥
रात्रि भोजनके पापसे यह मनुष्य परलोकमें भील, चांडाल, बहेलिया आदिके नीच कुलोंमें महा दरिद्री उत्पन्न होता है ।।९८|| रात्रिमें भोजन करनेके पापसे अनेक दोषोंसे परिपूर्ण, पाप उत्पन्न करनेवाली, मलिन, रागद्वेषसे अन्धी, शोलरहित, कुरूपिणी और दुःख देनेवाली स्त्री मिलती है ॥९९॥ रात्रिभक्षण करनेसे इस मनुष्यको पुत्र अनेक बुरे व्यसनोंसे रंगे हुए मिलते हैं, पुत्रियां शोलरहित मिलती हैं और भाई बन्धु आदि शत्रुओंके समान दुःखदायी मिलते हैं ॥१०॥ यह जीव रात्रिभोजनके पापसे भवभवमें अन्धा, बोना, कुब्जा, दरिद्री, कुरूप, बदसूरत, लंगड़ा, कुशीलो, अनेक बुरे व्यसनोंका सेवन करनेवाला, दुःखी, डरपोक, अपनी ही अपकोति फैलानेवाला,
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