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________________ श्रावकाचार-संग्रह अन्नपानं च खाद्यं च स्वाद्यं यो नात्ति शुद्धधीः । भजेत् रात्रौ सदा सोऽपि षष्ठों सुप्रतिमां वराम ॥७७ वंशकीटपतङ्गादिसूक्ष्मजीवा अनेकधाः । स्थालमध्ये पतन्त्येव रात्रिभोजनसङ्गिनाम् ॥७८ दोपकेन विना स्थूला दृश्यन्ते नाङ्गिनः क्वचित् । तदुद्योतवशादन्ये प्रागच्छन्तीव भाजने ॥७९ पाकभाजनमध्येषु पतन्त्येवाङ्गिनो ध्रुवम् । अन्नादिपचनादरात्रौ म्रियन्तेऽनन्तराशयः ॥८० इत्येवं दोषसंयुक्तं त्याज्यं सम्भोजनं निशि । विषानमिव निःशेषं पापभीतैनरैः सदा ॥८१ दनिशि न चादेयं साध्यं सन्मोदकादिकम् । अन्यद्वा चाम्रसन्नालिकेरक्षीरफलादिकम् ॥८२ भक्षितं येन रात्रौ च खाद्यं तेनान्नमञ्जसा । यतोऽन्नखाद्ययोर्भेदो न स्याद्वान्नादियोगतः ।।८३ भक्षणीयं भवेन्नैव पत्रपूगीफलादिकम् । कोटाढ्यं सर्वदा दौर्भूरिपापप्रदं निशि ॥८४ न ग्राह्यं प्रोदकं धीरैविभावर्या कदाचन । तृशान्तये स्वधर्माय सूक्ष्मजन्तुसमाकुलम् ॥८५ चतुर्विधं सदाहारं ये त्यजन्ति बुधा निशि । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥८६ इति मत्वा सदा त्याज्यं जनै रात्रौ चतुर्विधम् । आहारं धर्मसिद्धयर्थं तपोऽथं वा विमुक्तये ॥८७ पानादिसर्वमाहारं ये त्यजन्ति जना निशि । वताय जायते पुण्यं तेषां सारं सुखाकरम् ॥८८ ग्रहण करते हैं, इसमें अनेक जीव रहते हैं, यह विषयसुखोंको उत्पन्न करनेवाला है और धीरवीर धर्मका शत्रु है इसलिये हे भव्य ! स्वर्ग मोक्षादिको सिद्ध करनेके लिये तू विषके समान इन सचित्त पदार्थोंका त्याग कर ॥७६।। जो बुद्धिमान् रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि चारों प्रकारके आहार पानीका त्याग कर देता है उसके रात्रिभोजन त्याग नामकी छठी प्रतिमा होती है ॥७७|| रात्रिमें मनुष्योंकी थालियोंमें डांस, मच्छर, पतंगें आदि छोटे-छोटे अनेक जीव आ पड़ते हैं ॥७८॥ रात्रिमें यदि दीपक न जलाया जाय तो स्थूल जीव भी दिखाई नहीं पड़ सकते। यदि दीपक जला लिया जाय तो उसके प्रकाशसे थाली आदिमें और अनेक जीव आ जाते हैं ॥७९॥ भोजन पकते समय भी उस अन्नको वायु चारों और फैलती है इसलिये उस वायु के कारण उन पात्रोंमें अनन्त जीव आ आकर पड़ते हैं ।।८०॥ पापोंसे डरनेवाले मनुष्योंको ऊपर लिखे हुए अनेक दोषोंसे भरे हुए रात्रि भोजनको विष मिले हुए अन्नके समान सदाके लिये अवश्य त्याग कर देना चाहिये ॥८१॥ चतुर पुरुषोंको लड्डू, पेड़ा, बरफी आदि खानेकी चीजें वा नारियलका दूध, फल आदि कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥८२।। जो पुरुष रात्रिमें पेड़ा, बरफी आदि स्वाद्य पदार्थोंको खाते हैं-अन्नके पदार्थ नहीं खाते वे भी पापी हैं, क्योंकि अन्न व स्वाद्य पदार्थों में कोई भेद नहीं है ॥८३॥ . चतुर पुरुषोंको रात्रिमें सुपारी जावित्री आदि भी नहीं खानी चाहिये क्योंकि इनमें भी अनेक कीड़ोंकी सम्भावना रहती है। इसलिये इनका खाना भी महा पाप उत्पन्न करनेवाला है पा धीरवीर पुरुषोंको अपना दयाधर्म पालन करनेके लिये प्यास लगनेपर भी अनेक सक्ष्म जीवोंसे भरे हुए जलको भी रात्रिमें कभी नहीं पीना चाहिये ॥८५।। जो विद्वान् रात्रिमें चारों प्रकारका आहार त्याग कर देते हैं उन्हें प्रत्येक महीनेमें पन्द्रह दिन उपवास करनेका फल प्राप्त होता है ॥८६॥ यही समझकर मनुष्योंको धर्मकी सिद्धिके लिये, तपके लिये वा मोक्ष प्राप्त करने के लिये, रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग सदाके लिये कर देना चाहिये ॥८७॥ जो मनुष्य व्रत पालन करनेके लिये रात्रिमें अन्नपान आदि सब प्रकारके आहारका त्याग कर देता है उसके आत्माको शुद्ध करनेवाला अपार पुण्य होता है ।।८८॥ राशिमें आहारका त्याग कर देनेसे इन्द्रियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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