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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार आम्रनारङ्गखर्जू रकदल्यादिभवं फलम् । सर्वं क्षीरादिजं पुष्पं निम्बादिप्रभवं तथा ॥ ६४ गोधूमतिलसच्छा लिमुद्गसच्चणकादिकम् । एलाजीरादिजं बीजं पृथक् जीवसमन्वितम् ॥६५ शृङ्गवेरादिजं कन्दमूलं वृक्षादिसम्भवम् । आर्द्रा तरुत्वक्शाखां कोपलादिकमेव च ॥ ६६ नागवत्यादिजं पत्रं सर्वजीवसमाकुलम् । सचित्तं वर्जयेद्धीमान् सचित्तविरतो गृही ॥६७ अनग्निपक्कमन्यद्वा चेतनादिगुणान्वितम् । सचित्तविरतैर्घोरैनदियं प्रतिमाप्तये ॥ ६८ अत्यक्तात्मीयसद्वर्णसंस्पर्शादिकमञ्जसा । अप्रासुकमथातप्तं नीरं त्याज्यं व्रतान्वितैः ॥६९ वारि प्रात्मीयवर्णादित्यक्तं द्रव्यादियोगतः । तप्तं वाचाग्निनादेयं नयनाभ्यां परीक्ष्य भो ॥७० अपक्वमर्द्धपक्वं वा कन्दबीजफलादिकम् । सचित्तं नात्ति यस्तस्य पञ्चमी प्रतिमा भवेत् ॥७१ सचित्तं नात्ति यो धीमान् सर्वप्राणिसमायुतम् । दयामूर्तेर्भवेत्तस्य सफलं जीवितं भुवि ॥७२ सचित्तं जीवसंयुक्तं ज्ञात्वा योऽश्नाति दुष्टधीः । स्वजिह्वालम्पटाल्कि स स्वं वेत्ति मरणच्युतम् ॥७३ अश्नात्येव सचित्तं यस्तस्य स्यान्निर्दयं मनः । मनो निर्दयतः पापं जायते श्वभ्रसाधकम् ॥७४ इति मत्वा न तद्रव्यं ग्राह्यं प्राणात्यये क्वचित् । पापभीतैर्महापापदायकं जन्तुघातकम् ॥७५ अशुभ सकलखानि श्वभ्रसन्दानदक्षं कुजनगणगृहीतं सत्त्वयुक्तं सचित्तम् । विषयसुखकरं भो धीर ! धर्मस्य शत्र ु त्यज विषमिव सर्वं स्वर्गमोक्षादिसिद्धधै ॥७६ ४०५ करनेवाले बुद्धिमान् गृहस्थोंको आम, नारंगी, खजूर, केला आदि सब प्रकारके फल, नींब आदिक फूल, गेहूँ, तिल, चावल, मूग, चना, इलाइची, जीरा आदि जिनमें अलग जीव रहने की सम्भावना है, अदरक आदि कन्द वृक्षोंकी जड़, मूली, गीली छाल, पत्तियां, शाखा, कोंपल और अनन्त जीवोंसे भरे हुए नागवेलके पान आदि सब प्रकारके सचित्त पदार्थोंका त्याग करना चाहिये ||६४-६७॥ सचित्तविरत नामकी पाँचवीं प्रतिमा धारण करनेवाले धीरवीर पुरुषोंको अपनी पाँचवीं प्रतिमाका पालन करनेके लिये जो पदार्थ अग्निपर पकाये हुए नहीं हैं, अथवा जिनमें किसी प्रकारका भी चेतना गुण है ऐसे सचित्त पदार्थोंका अवश्य त्याग कर देना चाहिये || ६८ || पाँचवीं प्रतिमा धारण करनेवाले गृहस्थोंको जिसका निजका वर्ण वा रंग बदला नहीं है, न जिसका स्पर्श बदला है, ऐसे अप्राक और विना गर्म किये हुए जलका त्याग कर देना चाहिये ||६९ || पाँचवीं प्रतिमा धारण करनेवाले गृहस्थोंको लौंग, कालो मिरच आदि द्रव्योंके सम्बन्धसे जिसके निजका वर्ण बदल गया है अथवा जो अग्निसे गर्म कर लिया गया है ऐसा जल आँखोंसे परीक्षा कर ग्रहण करना चाहिये ||७०|| जो गृहस्थ विना पके हुए अथवा आधे पके हुए सचित्त कन्द, बीज, फल आदिको ग्रहण नहीं करता है उसके सचित्त विरत नामकी पाँचवीं प्रतिमा होती है ॥७१॥ जो बुद्धिमान् सब तरह प्राणियोंसे भरे हुए सचित्त पदार्थोंको नहीं खाता वह दयाकी मूर्ति समझा जाता है और संसारमें उसीका जन्म सफल गिना जाता है ||७२|| जो दुष्ट अपनी जिह्वाको लम्पटता के कारण जीव सहित सचित्त पदार्थोंको जानकर भी खाता है वह क्या अपनेको अमर समझता है ||७३ || जो समस्त सचित्त पदार्थोंको खाता है उसका मन निर्दय हो जाता है और मनके निर्दय होनेसे नरकको ले जानेवाला पाप उत्पन्न होता है ॥७४॥ | यही समझकर पापोंसे डरनेवाले चतुर पुरुषों को प्राण नाश होनेपर भी महापाप उत्पन्न करनेवाले और अनेक जीवांका घात करनेवाले सचित्त पदार्थ कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये ||७५ || हे भव्य ! इन सचित्त पदार्थोंका ग्रहण करना समस्त पापोंकी खानि है, नरकमें पहुँचानेके लिये चतुर है, दुष्ट पुरुष ही इसका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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