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श्रावकाचार-संग्रह गृहीत्वाऽनशनं यस्तु रोगक्लेशपरोषहात् । इच्छेत्स्वमरणं सोऽपि व्यतीचारं भजेन्नरः ॥५२ करोति यो भयं तीवमिहामुत्र भवादिजम् । श्रयेत्सोऽपि व्यतीपातं संन्यासस्य मलप्रदम् ॥५३ मित्रानुस्मरणं योऽपि बाल्यावस्थादिक्रीडितम् । करोति मोहतस्तस्य जायतेऽतिक्रमोऽशुभः ॥५४ कुर्याद योऽपि निदानं ना स्वर्गराज्यादिगोचरे । भोगहेतुं भजेत्सोऽपि मलं घोराशुभप्रदम् ॥५५ . यो गृहस्थोऽतिधीयुक्तस्त्यक्त्वातीचारपञ्चकम् । संन्यासं कुरुते तस्य फलं मुनिसमं भवेत् ॥५६
सकलगुणनिधानं स्वर्गमोक्षकहेतुं जिनगणधरसेव्यं पापवृक्षे कुठारम् ।।
सकलकरणपाशं सद्वतानां शुभाढचं बुध कुरु मरणे त्वं सारसंन्यासमेव ॥५७ करोति नियमेनैव नित्यं सामायिकं सुधीः । कालत्रये लभेत् सोऽपि तृतीयां प्रतिमां वराम् ॥५८ प्रोक्तं सामायिकस्यैव पूर्व सल्लक्षणं मया। शिक्षावते पुनर्नोक्तं द्विवारोक्तिभयात्स्फुटम् ॥५९ ज्ञातव्यं तत्त्वतस्तत्र शुद्धं सामायिकं बुधैः । तृतीयप्रतिमायुक्तरावर्तनुतिसंयुतम् ॥६० अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रोषधं यो भजेत्सुवीः । प्राणान्तेऽपि त्यजेन्नैव चतुर्थीप्रतिमां श्रयेत् ॥६१ सत्प्रोषधोपवासस्य प्रोक्तं पूर्व सुलक्षणम् । पुनरुक्तिभयान्नव प्रोक्तं तद्विस्तरं मया ॥६२ ज्ञेयं तत्रोपवासस्य विधिकर्तव्यमञ्जसा । सर्वसावधत्यक्तस्य चतुर्थप्रतिमान्वितैः ॥६३ लगता है ॥५१॥ जो उपवास धारण करके रोग क्लेश वा परीषहोंके कारण शीघ्र ही अपने मरने की इच्छा करता है उसके मरणाशंसा नामका अतिचार लगता है ॥५२॥ जो इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी तीव्र भय करता है उसके संन्यासमें मल उत्पन्न करनेवाला भय नामका अतिचार लगता है ॥५३॥ जो मोहके कारण अपने मित्रोंका तथा बालकपनके खेल कूदोंका स्मरण करता है उसके मित्रानुराग नामका अशुभ अतिचार लगता है ॥५४।। जो पुरुष भौगोपभोगोंके कारणोंकी इच्छा करता है, आगेके लिये स्वर्गादिक राज्य चाहता है और इस प्रकार निदान करता है उसके अत्यन्त पाप उत्पन्न करनेवाला निदान नामका अतिचार लगता है ।।५५।। जो वुद्धिमान् गृहस्थ पांचों अतिचारोंको छोड़कर समाधिमरण धारण करता है उसको मुनिके समान फल मिलता है ॥५६॥ यह समाधिमरण समस्त गुणोंका निधान है, स्वर्ग मोक्षका एक अद्वितीय कारण है, जिनराज और गणधरदेव भी इसकी प्रशंसा करते हैं, यह पापरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुठार है, समस्त इन्द्रियोंको वश करनेके लिये जाल है, व्रतोंसे परिपूर्ण है और पुण्यसे भरपूर है, इसलिये हे भव्य ! तू भी मरनेके समय होनेवाला समाधिमरण अवश्य धारण कर ॥५७।। यहाँतक व्रत प्रतिमा का निरूपण किया। जो बुद्धिमान् प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल तीनों समय नियमपूर्वक सदा सामायिक करता है उसके तीसरी सामायिक प्रतिमा कही जाती है ॥५८|| सामायिकका लक्षण उसकी विधि आदि सब हमने पहिले सामायिक नामके शिक्षाव्रतमें निरूपण किया है अतएव दूसरा कथन हो जानेके कारण यहाँ नहीं कहा ॥५९॥ तीसरी प्रतिमा धारण करनेवाले बुद्धिमानों को आवर्त नमस्कार आदि सहित सामायिकका स्वरूप वहाँसे जान लेना चाहिये ॥६०||
जो गृहस्थ अष्टमी और चतुर्दशीके दिन प्रत्येक महीनेके चारों पर्यों में प्रोषधोपवास करता है और प्राण नष्ट होनेपर भी उसको नहीं छोड़ता उसके चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा समझना चाहिये ॥६१।। इस प्रोषधोपवासका स्वरूप पहिले प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रतमें कह चुके हैं अब पुनरुक्त दोषके कारण और विस्तार होनेके डरसे यहाँ नहीं कहते हैं ॥६॥ चौथी प्रतिमा धारण करनेवाले गृहस्थोंको जिसमें समस्त पापोंका त्याग किया जाता है ऐसे इस प्रोषधोपवासकी विधि लक्षण कर्तव्य आदि सब वहीसे जान लेना चाहिये ।।६३|| सचित्तविरत नामकी पाँचवीं प्रतिमा धारण
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