SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ४०३. अथवा चरमं देहं दुष्कर्माणि विमुच्य ना। सर्वार्थसिद्धिमेवासौ याति पुण्यमुपाज्यं वै ॥३९ केचित्संन्यासयोगेन यान्ति प्रैवेयकं बुधाः । केचित्षोडशमं नाकं धर्मसौख्याकरं परम् ॥४० संन्यासविधिना केचित् सौधर्मादिसुखालयम् । यावदच्युतकल्पं च बहुभोगसमन्वितम् ॥४१ संन्यासमरणात्केचित् त्यक्त्वा प्राणान् नरोत्तमाः। प्राप्य शक्रपदं नूनं पश्चाधान्ति शिवालयम् ॥४२ सल्लेखनाविधानेन केचिद्भुक्त्वा महासुखम् । स्वर्गे भुञ्जन्ति तीर्थेशसम्पदं दर्शनान्विताः ॥४३ मरणाराधनेनैव देवलोकभवं सुखम् । भुक्त्वा व्रजन्ति चक्रेशभूति धर्मान्विता नराः ॥४४ जघन्याराधनेनैव सुखं भुक्त्वा नृदेवजम् । सप्ताष्ट भवपर्यन्तं यान्ति मुक्ति क्रमाद बुधाः ॥४५ किमत्र बहुनोक्तेन संन्यासेन समो वृषः । न स्यात्कालत्रये नूनं नराणां शर्मसाधनः ॥४६ एवं करोति संन्यासं प्राणान्ते योऽपि श्रावकः । अतिचारविनिर्मुक्तं सफलं तस्य सवतम् ॥४७ संन्यासस्य व्यतीपातान् दिशध्वं कृपया मम । भगवंश्च सुधर्माय संन्यासादिप्रसिद्धये ॥४८ एकचित्तेन भो धीमन् ! शृणु वक्ष्ये व्यतिक्रमान् । संन्यासस्य विमुक्त्यर्थं संन्यासक्तदोषदान् ॥४९ भवेच्च जीविताशंसा मरणेच्छा ततो भयः । मित्रस्मृतिनिदानं च स्युः संन्यासे व्यतिक्रमाः ॥५० यः संन्यासं समादाय वाञ्च्छेत्स्वस्यैव जीवितम् । सल्लेखनावतस्यैव तस्य दोषो भवेद्धवम् ॥५१ वाला उत्तम विद्वान् चरमशरीरी हुआ तो वह आठों कर्मोको नाशकर अनन्त सुख देनेवाले मोक्षमें अवश्य ही जा विराजमान होगा ॥३८॥ यदि समाधिमरण धारण करनेवाला चरमशरीरी नहीं है तो वह उस शरीरको तथा पाप कर्मोको नष्टकर और महा पुण्य उपार्जन कर सर्वार्थसिद्धिमें जा विराजमान होता है ॥३९।। इस समाधिमरणको धारण करनेसे कितने ही विद्वान् ग्रैवेयकोंमें जन्म लेते हैं, और कितने ही विद्वान् धर्म और सुखकी खानि ऐसे परमोत्तम सोलहवें स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं ॥४०॥ विधिपूर्वक समाधिमरण धारण करनेसे कितने ही लोग सुखके घर और अनेक प्रकारके भोगोपभोगोंकी सामग्रियोंसे भरे हुए सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युतस्वर्ग तक किसी भी स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं ॥४१॥ कितने ही उत्तम पुरुष इस समाधिमरणसे प्राणोंको छोड़कर और इन्द्रका उत्तम पद पाकर पीछे मोक्षमें जा विराजमान होते हैं ॥४२॥ कितने ही सम्यग्दृष्टी पुरुष इस समाधिमरणके प्रभावसे स्वर्गके महा सुखोंका उपभोग कर अन्तमें तीर्थंकरके परम पदको प्राप्त होते हैं ॥४३॥ धर्मात्मा पुरुष इस समाधिमरणके प्रभावसे ही स्वर्गके सुख भोगकर चक्रवर्ती की विभूतिको पाते हैं ॥४४॥ जो विद्वान् इस समाधिमरणको जघन्य रीतिसे धारण करते हैं वे देव और मनुष्योंके सुख भोगकर सात आठ भवमें मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥४५॥ बहुत कहनसे . क्या? थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि मनुष्योंको इस समाधिमरणके समान कल्याण करनेवाला धर्म तीनों कालमें नहीं हो सकता ॥४६॥ इस प्रकार जो श्रावक मरनेके समय अतिचार रहित समाधिमरण धारण करता है संसारमें उसीके व्रत सफल होते हैं ॥४७॥ प्रश्न हे भगवन् ! धर्म पालन करनेके लिये और समाधिमरणको शुद्धतापूर्वक धारण करनेके लिये कृपाकर उन समाधिमरणके अतिचारोंका निरूपण कीजिये ॥४८॥ उत्तर-हे विद्वन् ! तू चित्त लगाकर सुन, मैं समाधिमरणको विशुद्ध रखनेके लिये उस समाधिमरणरूपी धर्ममें दोष लगानेवाले समाधिमरणके अतिचारोंको कहता हूँ ।।४९|| जीविताशंसा, मरणेच्छा, भय, मित्रस्मृति और निदान ये पाँच समाधिमरणके अतिचार गिने जाते हैं ॥५०॥ जो समाधिमरण धारण व रके भी अपने जीवित रहनेकी इच्छा रखता है उसके सल्लेखना व्रतमें जीविताशंसा नामका अतिचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy