SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ श्रावकाचार-संग्रह दुर्गतित्वं कूमार्गत्वं परलोकेऽतिनिन्दिताम् । रात्रिभोजनपापेन लभेत्प्राणी भवे भवे ॥१०३ किमत्र बहुनोक्तेन संसारे दुःखमेव यत् । तत्सर्व जायते पुंसां रात्रिभोजनपापतः ।।१०४ रात्रावपि न ये मूढा आहारं सन्त्यजन्ति भोः । पशवस्ते नरा नैव चाष्टप्रहरभक्षणात् ।।१०५ आमिषाशीसमो ज्ञेयो रात्रिभोजनतत्परः । सूक्ष्मकीटपतङ्गादिजीवराशिप्रभक्षणात् ।।१०६ ये रात्रौ च प्रखादन्ति शठाः पत्रादिकं सदा । कोटादिभक्षणात्तेषामामिषे नियमः कथम् ।।१०७ ये पिबन्ति जना नीरं कोटाढयं दृष्टयगोचरम् । अन्धा इव कथं तेषाहिसाख्यं व्रतं निशि ॥१०८ महापापप्रदं त्याज्यं सदाहारं चतुर्विधम् । जीवहिंसाकरं दक्षैः स्वर्गमुक्तिप्रसिद्धये ॥१०९ वरं हालाहलं लोके भक्षितं प्राणनाशकम् । वारैकं हि न चाहारं संख्यातीतं भवे नृणाम् ॥११० इति ज्ञात्वा बुधैः सर्वमाहारं निशि सर्वथा । प्राप्ते प्राणवियोगेऽपि न भोक्तव्यमखाद्यवत् ॥१११ क्षुधातुराय कस्मैचिन्न दातव्यं गृहान्वितैः । भोजनं निशि पापाय भीतैः पापकरं त्रिधा ॥११२ कायवाङ्मनसा योऽपि नात्ति चाहारमञ्जसा । संकृतादिकसंकल्पैः तस्य स्यान्निर्मलं व्रतम् ।।११३ नरकगृहकपाटं स्वर्गगेहाग्रमार्ग सकलसुजनसेव्यं सद्वतस्यापि मूलम् । स्वसुखकरमपापं धर्मरत्नस्य खानि व्रतमपि भज मित्र ! राज्यभुक्ताख्यनाम ।।११४ थोड़ी आयुवाला, पापी, कुजन्मा, अङ्ग भङ्ग शरीरवाला, दुर्गतियोंमें जानेवाला, कुमार्गगामी और अत्यन्त निंद्य होता है ।।१०१-१०३।। बहुत कहनेसे क्या! थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि संसारमें जो कुछ दुःख हैं वे सब मनुष्योंको रात्रिभोजनके पापसे ही उत्पन्न होते हैं ॥१०४॥ जो मूर्ख रात्रिमें भी आहार पानी नहीं छोड़ते वे आठों पहर भक्षण करनेके कारण पशु ही समझे जाते हैं ।।१०५।। रात्रिभोजनमें सदा तत्पर रहनेवाले मनुष्य कीड़े, मकोड़े, पतंगे आदि अनेक सूक्ष्म जीवोंको भक्षण कर जाते हैं इसलिये वे मांस भक्षियोंके ही समान गिने जाते हैं ॥१०६|| जो अज्ञानी मनुष्य पान सुपारी आदि भी रात्रिमें खाते हैं वे भी उसके साथ अनेक कीड़े मकोड़ेका भक्षण कर जाते हैं इसलिये मांस त्यागका नियम उनके भी नहीं निभ सकता ॥१०७।। जो मनुष्य आँखसे न दिखाई देनेवाले अनेक कीड़ोंसे भरे हुए जलको रात्रिमें पोते हैं वे अन्य पापोंके समान अहिंसावतको किस प्रकार पालन कर सकते हैं अर्थात् जैसे अन्य पापोंमें अहिसाव्रत नहीं पल सकता उसी प्रकार रात्रिभोजनमें भी अहिंसाव्रत नहीं पल सकता ॥१०८।। चतुर पुरुषोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये अनेक जीवोंको हिंसा करनेवाला, महा पाप उत्पन्न करनेवाला और महा पापरूप ऐसे चारों प्रकारके आहारका रात्रिभोजन अवश्य छोड़ देना चाहिये ।।९०९।। संसारमें एक बार प्राणोंको नाश करनेवाला हलाहल विष खा लेना अच्छा, परन्तु अनेक भवोंतक दुःख देनेवाला रात्रिभोजन करना अच्छा नहीं ॥११०|| यही समझकर विद्वानों को प्राणोंके वियोग होनेका समय आपर भी अभक्ष्यके समान रात्रिमें सब प्रकारके आहारका त्याग सदाके लिये कर देना चाहिये ॥१११।। पापोंसे डरनेवाले गृहस्थोंको मन वचन कायसे रात्रिमें किसी भूखेको भी पाप उत्पन्न करनेवाला भोजन नहीं देना चाहिये ।।११२।। जो मनुष्य मन वचन कायसे व कृत कारित अनुमोदनासे रात्रिभोजन नहीं करता उसके यह रात्रिभोजन त्याग नामका व्रत निर्मल रीतिसे पालन होता है ।।११३॥ हे मित्र ! यह रात्रिभोजन त्याग नामका व्रत नरकरूपी घरको बन्द करने के लिये किवाड़ है, स्वर्गरूपी घरके लिये मुख्य मार्ग है. समस्त सज्जन इसका पालन करते हैं, समस्त श्रेष्ठ व्रतोंकी जड़ है, पाप रहित है, आत्माको सुख देने वाला है और धर्मरत्नकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy