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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ४०१ वैरं द्वेषं च कालुष्यं सर्व शत्रकदम्बके । रोगादिकेऽथवान्यत्र जहि संन्याससिद्धये ॥१३ क्षान्त्वापि स्वजनं सर्व भार्यापुत्रादिकं स्वयम् । भृत्यादिकं महाशत्रु पूर्ववैरानुबन्धिनम् ॥१४ कोमलैर्वचनालापैर्मनोवाक्कायकर्मभिः । स्फुटं च क्षमयेद्धीरः संन्यासोद्यतशुद्धधीः ॥१५ कृतस्य कारितस्यापि पापस्यानुमतस्य च । यावज्जीवाश्रितस्यैव गृहव्यापारजस्य च ॥१६ मिथ्यात्वाविरतेयोगात्कषायातिप्रमादतः । कुसङ्गविषयाच्चापि जातस्याप्यन्यहेतुतः ॥१७ सर्वाघौघविनाशार्थ सत्सूरिनिकटे स्वयम् । आलोचनं कुरु त्वं हि दशदोषविजितम् ॥१८ आकम्पिताख्यदोषोनुमानितो दृष्ट एव च । बादरः सूक्ष्म एव छन्न स्थाच्छन्दाकुलो ध्रुवम् ॥१९ दोषो बहुजनो नामा व्यक्ता आलोचनस्य वै । तत्सेवी स्युर्दशैवास्य दोषादोषविधायकः ॥२० सर्वान् दोषान् परित्यज्य बालवत्सूरिसन्निधौ । कुर्यादालोचनां यो ना तस्य दोषाः भवन्ति न ॥२१ इति मत्वा मनःशुद्धिं कृत्वा स्वालोचनां गुरोः। पार्वे कुरु स्वपापस्य क्षयार्थं शुद्धिहेतवे ॥२२ ततो गृहाण सम्पूर्ण महावतकदम्बकम् । सर्वसङ्गपरित्यागं कृत्वा मुक्त्यर्थमञ्जसा ॥२३ निर्ममत्वं शरीरादौ बन्धुवर्गादिके परे । भावय त्वं महाधीर ! निर्विकल्पेन चेतसा ॥२४ ततः शोकं भयं स्नेहं कालुष्यमरति तथा। रति मोहं विषादं च रागद्वेषं त्यज स्वयम् ॥२५ संसारदेहभोगेषु श्वभ्रतिर्यकप्रदेषु च । सर्वदुःखनिदानेषु वैराग्यं चिन्तयस्व भो ॥२६ भव्य ! विधिपूर्वक समाधिमरण धारण करनेके लिये रोग आदिके हो जानेपर अथवा दूसरी जगह भी वैर, द्वेष और कलुषता आदि समस्त शत्रुओंके समुदायका त्याग कर देना चाहिये ॥१३॥ समाधिमरण धारण करने में तत्पर होनेवाले और शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले धीरवीर आराधकको कोमल वचनोंके द्वारा मन वचन कायसे अपने सब कुटुम्बियोंसे, स्त्रोसे, पुत्रादिकोंसे, सेवकोंसे तथा पहिलेसे वैरभाव रखनेवाले महा शत्रुओंसे क्षमा करानी चाहिये और सबको स्वयं क्षमा कर देना चाहिये ।।१४-१५॥ इसी प्रकार हे भव्य ! समाधिमरण धारण करते समय जो पाप कृत कारित अनुमोदनासे किये हैं, जो पाप जीवनपर्यन्त होनेवाले घरके व्यापारसे हुए हैं, जो पाप मिथ्यात्व, अविरत, कषाय, प्रमाद और योगोंसे हुए हैं, जो बुरी संगतिसे, विषयोंसे वा अन्य कारणोंसे हुए हैं उन सब पापोंको नाश करनेके लिये आचार्यके समीप दश दोषोंसे रहित होकर स्वयं आलोचना कर ।।१६-१८|| आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और सत्सेवित ये दश दोष उत्पन्न करनेवाले आलोचनाके दोष गिने जाते हैं ॥१९-२०॥ जो इन सब दोषोंका त्यागकर आचार्यके निकट बालकके समान (विना किसी छल कपटके) आलोचना करता है उसकी आलोचनामें कोई दोष नहीं लग सकता ॥२१॥ यही समझकर हे भव्य ! पापोंको नाश करनेके लिये और आत्माको शुद्ध करनेके लिये तू मनको शुद्धकर गुरुके समीप आलोचना कर ॥२२॥ तदनन्तर मोक्ष प्राप्त करनेके लिये समस्त परिग्रहोंका त्यागकर समस्त महाव्रत धारण करने चाहिये ॥२३॥ हे धीरवीर ! तू मनके समस्त संकल्प विकल्पोंको छोड़कर शरीरादिकमें तथा भाई, बन्धु आदि कुटुम्बी लोगोंमें निर्ममता (ममताके त्याग करने) का चिन्तवन कर ! अर्थात् ममताका त्याग कर ॥२४॥ तदनन्तर तू शोक, भय, स्नेह, कलुषता, अरति, रति, मोह, विषाद और रागद्वेष आदिको स्वयं छोड़ ॥२५॥ ये संसार, देह, भोग, नरक और तिर्यंच गतिके दुःख देनेवाले हैं और सब प्रकारके दुःखोंके घर हैं इसलिये हे भव्य ! तू इनमें वैराग्य धारण कर ॥२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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