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बाईसवाँ परिच्छेद
नेमिनाथं जगत्पूज्यं कामदं कामघातकम् । सर्वेन्द्रियगजानीकसिंहं वन्दे महाबलम् ॥१ वतान्यपि समात्याय द्वादशैव विमुक्तये । ततः सल्लेखनां वक्ष्ये मुक्तिपर्यन्तसौख्यदाम् ॥२ वृद्धत्वेऽपि जराग्रस्त मन्वदृष्टयादिकेन्द्रिये । शक्तित्यक्तशरीरे च व्रतभङ्गादिकारणे ॥३ धर्मनाशे महारोगे प्रतीकारादिजिते । महाघोरोपसर्गे च तिर्यङ्मादिसम्भवे ॥४ दुभिक्षे च सुधर्माय प्रानुष्ठेया नरोत्तमैः । सल्लेखना समाध्यथं नाकमोक्षसुखप्रदम् ॥५ कृत्वा तपोऽनघं यावज्जीवं सल्लेखना पुनः । प्राणान्ते यो मुनिः कुर्यात्तस्य स्यात्सफलं तपः ॥६ घृत्वा वृत्तानि योऽगारी संन्यासं कुरुते पुनः । मरणं सफलं तस्य व्रतं सर्वसुखाकरम् ॥७ अकाले यदि चायाति मृत्युः सादिदंशतः । ससंशयो मनुष्याणां प्रोपसर्गादियोगतः ॥८ ईदृशं हि तदा कार्य सन्न्यासं सन्नरेण वै । मृत्युः स्यादिमेऽत्रैव घोरात्यन्तपरोषहात् ॥९ चतुर्विधे महाहारे ममास्तु नियमं ध्रुवम् । जीविष्यामि कथंचिच्चेत्ततो भोक्ष्येऽशनादिकम् ॥१० अथवा स्वस्य निश्चित्य मरणं प्रागतं ध्रुवम् । सल्लेखनां कुरु त्वं भो ! इमां सद्विधिनान्वितम् ११ नारोमित्रादिके स्नेहं राग मोहं च सर्वथा। धनधान्याविके देहे ममत्वं त्यज शुद्धये ॥१२
जो नेमिनाथ भगवान् जगत्पूज्य हैं, इच्छानुसार फल देनेवाले हैं, कामदेवको नष्ट करने. वाले हैं, समस्त इन्द्रियरूपी हाथियोंको सेनाको वश करनेके लिये सिंह हैं और महा बलवान हैं ऐसे श्री नेमिनाथस्वामीको में नमस्कार करता हूँ ॥१॥ मोक्ष प्राप्त करनेके लिये बारह व्रतोंका निरूपण कर अब मोक्ष प्राप्त होने पर्यन्त सुख देनेवाली सल्लेखनाको कहते हैं ॥२॥ अत्यन्त बुढ़ापा आ जानेपर दृष्टि, इन्द्रिय आदि सब शिथिल हो जानेपर, शरीरकी शक्ति छूट जानेपर, व्रतोंके भंग होनेके कारण उपस्थित हो जानेपर, धर्मके नाश हो जानेपर, जिसका कोई उपाय नहीं हो सकता ऐसे महारोगके हो जानेपर, तिर्यच वा मनुष्योंसे होनेवाले महाघोर उपसर्गके होनेपर और महादुर्भिक्षके पड़नेपर उत्तम पुरुषोंको धर्मपालन करने और समाधि धारण करनेके लिये स्वर्गमोक्षके सुख देनेवाली सल्लेखना अवश्य धारण करनी चाहिये ॥३-५॥ जो मुनि जीवनपर्यन्त घोर तपश्चरण करते हैं वे जब प्राण छूटनेके समय सल्लेखना धारण करते हैं तभी उनका वह तप सफल होता है ॥६॥ जो गृहस्थ समस्त व्रतोंको पालन कर अन्तमें समाधिमरण धारण करता है उसीके सब प्रकारके सुख देनेवाले व्रत सफल कहे जाते हैं ॥७॥ कदाचित् सर्प आदिके काट लेनेसे अथवा किसी भारी उपसर्गके आ जानेपर असमयमें ही मृत्यु आ जाय और वह सन्देहरूपमें हो अर्थात् जिसमें जीने मरने दोनोंका सन्देह हो तो उस समय इस प्रकार समाधिमरण धारण करना चाहिये कि यदि इस घोर परीषहसे इसी समय मेरी मृत्यु हो गई तो मेरे चारों प्रकारके आहारके त्यागका नियम है। यदि मैं किसी प्रकार जीवित हो गया तो फिर भोजन करूंगा ।।८-१०॥ अथवा अपने आए हुए मरणका निश्चयकर हे भव्य ! तू विधिपूर्वक इस समाधिमरणको धारण कर ॥१२॥ हे मित्र ! तू स्त्री मित्र आदिकोंमें होनेवाले प्रेम, स्नेह, मोहको सर्वथा छोड़ दे तथा आत्माको शुद्ध करनेके लिये धन धान्य और शरीरादिकमें होनेवाले ममत्वका सर्वथा त्याग कर दे ॥१२॥ हे
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