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श्रावकाचार-संग्रह
हिंसकोऽहिसकोऽहिस्यः सधनः सुधनोऽधनो। रूपोऽरूपो समो रूपस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥१६१ देवदेवो महादेवो निधानो निधिनायकः । नाथोऽनाथो जगन्नाथस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥१६२ ध्याताऽध्याता महाध्याता सदयो सदयोऽवयः । योग्योऽयोग्यो महायोग्यस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥ वक्ताऽवक्ता सुवक्ता च सस्पृहोऽसस्पृहोऽस्पृहः । ब्रह्माऽब्रह्मा महाब्रह्मा त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥१६४ देहोऽदेहो महादेहो निश्चलोऽनिश्चलोऽचलः । रत्नोऽरत्नः सुरत्नाढयस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥१६५
त्वं देवस्त्रिदशेश्वराचितपदस्त्वं मुक्तिनाथोऽव्ययः त्वं धर्मामृतसागरः सुखनिधिस्त्वं केवलोद्योतकः । त्वं लोकत्रयतारणकचतुरस्त्वं मोहदापहः
प्राप्तोऽहं शरणं जिनेश्वर प्रभो! ते पाहि मां भो गुरो ! ॥१६६ इति स्तुत्वा महावीरं प्रणम्य च सुराचितम् । श्रितः श्रेणिकभूपालो मत्यकोष्ठं प्रहृष्टधोः ॥१६७ तत्र शुश्राव षड्द्रव्यसप्ततत्त्वान् नरेश्वरः । यतीनां च गहस्थानां धर्म सर्वसुखाकरम् ॥१६८ अहिंसाधर्मकी प्रवृत्ति करनेवाले हैं, तथापि कर्मोंको वा रागद्वेषादिको नष्ट करनेके कारण हिंसक कहलाते हैं । अनन्त विभूति होनेके कारण आप सधन हैं, और धनी हैं । आप अत्यन्त रूपवान हैं। शुद्ध आत्मस्वरूप होनेके कारण अरूपी हैं तथापि परम मनोहर हैं इसलिये हे देव ! आपके लिये नमस्कार हो ॥१६१॥ हे देव ! आप देव हैं, देवाधिदेव हैं और महादेव हैं, आप गुणोंके निधान हैं, निधियोंके स्वामी हैं, आप नाथ हैं, आपका कोई स्वामी नहीं है इसलिये आप अनाथ हैं, तथापि आप जगन्नाथ कहलाते हैं इसलिये हे देव ! आपको नमस्कार हो ॥१६२।। हे नाथ ! आप ध्यान करनेवाले ध्याता हैं, महाध्याता हैं तथापि सब आपका ध्यान करते हैं। आप किसीका ध्यान नहीं करते इसलिये आप ध्याता नहीं है । आप दयालु हैं, महादयालु हैं और निर्दयतासे कर्मोको नाश करनेके कारण दया रहित हैं । आप सब तरह योग्य हैं, महायोग्य हैं परन्तु सांसारिक कार्योंके लिये अयोग्य हैं इसलिये हे देव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥१६३॥ आप प्रतिदिन तीनों समय उपदेश देनेके कारण वक्ता हैं, सुवक्ता हैं अथापि आपकी भाषा दिव्यध्वनि निरक्षरी होनेके कारण आप अवक्ता ही हैं । आप इच्छा रहित हैं तथापि समस्त जीवोंका कल्याण करनेकी भावना होनेके कारण इच्छावाले गिने जाते हैं। फिर भी आप स्वयं इच्छारहित हैं । आप ब्रह्मा हैं, महाब्रह्मा हैं तथापि सृष्टिके कर्ता न होनेके कारण आप ब्रह्मा नहीं हैं। हे नाथ ! ऐसे आपको बारबार नमस्कार हो ॥१६४॥ हे देव ! आप सशरीर हैं, परमोत्कृष्ट शरीरको धारण करनेवाले हैं तथापि शरीर रहित हैं । आप निश्चल हैं, स्थिर हैं तथापि सब जगह विहार करनेके कारण अस्थिर हैं। आप एक रत्न हैं, महारत्न हैं और परिपूर्ण रत्नत्रयसे सुशोभित हैं इसलिये हे देव ! आपके लिये बार बार नमस्कार हो ॥१६५॥ हे प्रभो ! इन्द्र भी आपके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं, आप मुक्तिके स्वामी हैं, सदा इसी अवस्थामें रहनेवाले अव्यय हैं, धर्मरूपी अमृतके समुद्र है, सुखके निधि है, केवलज्ञानको प्रकाशित करनेवाले हैं, तीनों लोकोंको इस असार संसारसे पार कर देनेके लिये अद्वितीय विद्वान हैं और मोहके महा अभिमानको चूर-चूर करनेवाले हैं। हे जिनराज ! हे गुरुदेव ! हे प्रभो ! मैं आपकी शरण आया हूँ, आप कृपाकर मेरी रक्षा कीजिये ||१६६।। इस प्रकार देवोंके द्वारा परम पूज्य भगवान महावीरस्वामीकी स्तुति कर और उनको प्रणाम कर राजा श्रेणिक प्रसन्नचित्त होकर मनुष्योंके कोठेमें जा बैठा ।।१६७। वहाँपर बैठकर उसने छहों द्रव्य, सातों तत्त्वों
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