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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
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परिप्राप्तं फलं येन स्वामिन् ! श्रीजिनपूजया । कथं तस्य ममाग्रे त्वं कृपां कृत्वा निरूपय ॥१४९ एकचित्तान्वितो भूत्वा शृणु श्रावक ते कथाम् । वक्ष्ये पूजासमासक्तभेकपुण्यफलोद्भवाम् ॥१५० जम्बूद्वीपेऽति विख्याते सद्देशे मगधाभिधे । रम्यं राजगृहं भाति पुरं धर्मादिसद्गृहम् ॥ १५१ तत्र स्यात् श्रेणिको भूपो भव्यलोकशिरोमणिः । क्षायिकालङकृतो धीमान् धीरो धर्मप्रभावकः ॥१५२ स चैकदा समाकर्ण्य वनपालमुखात्स्वयम् । गतो नन्तुं महावीरं महासेन्यसमन्वितः ॥ १५३ विपुलाद्रिस्थितं वीरं त्रिः परीत्य जगद्गुरुम् । स्वहस्तौ मस्तके धृत्वा सोऽनमच्छ्रीजिनाधिपम् ॥१५४ अष्टभेदान्वितां पूजां कृत्वा भक्तिभरात्पुनः । स्तवनं कर्तुमारब्धं श्रेणिकेनातिधीमता ॥ १५५ त्वं देव जगतां नाथस्त्वं त्राता कारणं विना । कथं स्तुवे हि सर्वज्ञं स्थामहं बुद्धिजितः ॥ १५६ तथापि प्रेरितो देव भक्तिभारेण त्वां प्रति । करोमि स्तवनं किञ्चिदहं मन्वधियान्वितः ॥ १५७ श्रताऽत्राता महात्राता भर्ताऽभर्ता जगत्प्रभो ! । बीरोऽवीरो महावीरस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥ १५८ कर्ताकर्ता कर्ता च धर्मोऽधमंश्च धर्मदः । पूज्योऽपूज्योऽतिसम्पूज्यस्त्वं देवासि नमोऽस्तु ते ॥ १५९ सिद्धोऽसिद्धः प्रसिद्धस्त्वं बुद्धोऽबुद्धोऽतिबुद्धिदः । धीरोऽधीरोऽतिधीरश्च त्वं बेवासि नमोस्तु ते ॥ १६० कारण सूकर मुनिराज के चरणकमलोंको हृदयमें रखकर मरा था इसलिये वह निर्मल पुण्यके प्रभाव से सारभूत सौधर्म स्वर्ग में निर्मल गुणोंका समुद्र ऐसा उत्तम देव हुआ था || १४८ ॥
प्रश्न - हे प्रभो ! भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेसे जिसकोउ त्तम फल मिला है उसकी कथा कृपाकर मेरे लिये कहिये || १४९|| उत्तर - हे श्रावकोत्तम, तू एक चित्त होकर सुन । भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेमें तल्लीन हुए एक मेढकके पुण्यसे होनेवाले फलको में कहता हूँ ।। १५०॥ इसी प्रसिद्ध जम्बूद्वीप मगध नामके शुभ देशमें एक मनोहर राजगृह नगर शोभायमान है जिसके सब घर प्रायः धर्म अर्थ आदि पुरुषार्थोंसे भरपूर हैं ।। १५१ ।। उस नगरमें राजा श्रेणिक राज्य करता था । वह राजा भव्य जीवोंका शिरोमणि था, धीरवीर था, धर्मकी प्रभावना करनेवाला था और क्षायिक सम्यग्दर्शनसे सुशोभित था || १५२ || किसी एक दिन उसने वनपालसे ( मालीसे) विपुलाचल पर्वत पर श्रीमहावीर स्वामीके आनेके समाचार सुने इसलिये वह स्वयं अपनी बड़ी सेनाको साथ लेकर उनकी वन्दना करनेके लिये निकला वहाँपर जाकर उसने जगद्गुरु भगवान् जिनेन्द्रदेव महावीर स्वामीकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं और हाथ मस्तकपर रखकर उनको नमस्कार किया ।। १५३१५४।। तदनन्तर उस बुद्धिमानने बड़ी भक्तिसे आठों द्रव्य लेकर भगवान्की पूजा की और फिर वह राजा श्रेणिक भगवान् महावीरस्वामीकी स्तुति करने लगा ||१५५ ॥ । हे देव ! आप जगत्के स्वामी हैं विना ही कारणके समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवाले हैं और सर्वज्ञ हैं तथा में नितान्त बुद्धि रहित हूँ फिर भला मैं आपकी स्तुति किस प्रकार कर सकता हूँ || १५६ ॥ तथापि मैं अत्यन्त मंदबुद्धि होकर भी केवल भक्तिके भारसे प्रेरित होकर आपको स्तुति करता हूँ ॥ १५७॥ हे देव ! आप सबकी रक्षा करनेवाले हैं और किसीकी भी रक्षा करनेवाले नहीं हैं, तथापि महा रक्षक हैं। आप सबके स्वामी हैं, किसीके भी स्वामी नहीं हैं तथापि तीनों लोकोंके स्वामी हैं । आप वीर हैं, वीर नहीं हैं और महावीर हैं इसलिये हे देव ! आपको नमस्कार हो ।। १५८।। हे देव, आप कर्ता हैं, कर्ता नहीं भी हैं और सुकर्ता हैं, धर्म भी हैं, अधर्मरूप भी हैं और धर्मदाता भी हैं। पूज्य हैं, अपूज्य हैं और अतिसंपूज्य भी हैं, इसलिये आपको नमस्कार हो ॥१५९॥ आप सिद्ध हैं, महा सिद्ध हैं और प्रसिद्ध हैं, आप बुद्ध (सर्वज्ञ) हैं, महा बुद्ध हैं और अतिशय बुद्धिको देनेवाले हैं। आप धीर हैं, महा धीर हैं और धीरता रहित हैं इसलिये हे नाथ ! आपके लिये नमस्कार हो || १६०॥ आप
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