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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार तत्रागतो महाभूत्या युक्तो देवो महद्धकः । मुकुटे भेकचिह्नं च कृत्वा पूजयितुं जिनम् ॥१६९ श्रेणिकेन तमालोक्य भेकचिह्नस्य कारणम् । प्रणम्य गौतमस्वामी पृष्टो ज्ञानविलोचनः ॥१७० उक्तं श्रीगौतमेनैव सञ्जातोऽयं सुरो दिवि । इदानीं चैव पूजार्थमागतोऽत्र जिनेशिनः ॥ १७१ अनेन किं कृतं स्वामिन् ! दानं पूजा तपोऽथवा । जातोऽयं येन पुण्येन तत्सर्वं मे निरूपय ॥ १७२ तच्छ्र ुत्वा गौतमः प्राह ऋणु श्रेणिक ! सच्छुभाम् । कथयामि कथामस्य स्थिरं कृत्वा निजं मनः ॥ तवैव नगरे श्रेष्ठी नागदत्तायोऽभवत् । भार्यास्य भवदत्ता भून्नित्यं मायान्वितात्मनः ॥ १७४ अर्थ दार्तध्यानेन मृत्वा श्रेष्ठी गृहाङ्गणे । पापी फलेन वाप्यां स भेको जातोऽतिपापतः ॥ १७५ नीरार्थमागतां भार्यां दृष्ट्वा जातिस्रोऽजनि । तस्था अङ्गे स उत्पेत्य चढितोऽत्यन्तमोहतः ॥ १७६ तया निर्धाटितो दूराद्रटत्येव वराककः । पुनर्वेगेन चागत्य चढत्येव विधेर्वशात् ॥ १७७ ततस्तया मदीयोऽयं कोऽप्यभीष्टो भविष्यति । इति सञ्चितितं स्वस्थ मानसे धोसमन्विते ॥ १७८ श्रेष्ठिन्या चैकदा पृष्टः सुव्रताख्यतपोधनः । अवधिज्ञानसम्पन्नस्तद्भकस्य कथां शुभाम् ॥ १७९ अनूक्तं मुनिना तस्या अग्रे श्रेष्ठी तव प्रियः । पापार्जनेन सञ्जातो भंकोऽयं दुःखपीडितः ॥ १८० ज्ञात्वा भर्ता स्वकीयोऽतिगौरवेण घृतस्तया । भेको मोहेन वानीय स्वगेहे भक्तिहेतवे ॥ १८१ का स्वरूप सुना और मुनि तथा गृहस्थोंके सुख देनेवाला धर्मका स्वरूप सुना || १६८ | | उसी समय वहाँपर एक बड़ी ऋद्धिको धारण करनेवाला देव बड़ी विभूतिके साथ भगवान्की पूजा करने के लिये आया जिसके मुकुटमें मेंढकका - चिन्ह था || १६९|| महाराज श्रेणिकने उसे देखकर ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले गौतमस्वामीको नमस्कार किया और उस देवके मुकुट में लगे हुए मेंढक के चिन्हका कारण पूछा ॥ ९७० ॥ इसके उत्तरमें श्री गौतमस्वामी कहने लगे कि यह अभी जाकर स्वर्ग में देव हुआ है और तुरन्त ही भगवान्‌की पूजा करनेके लिये आया है || १७१|| यह सुनकर महाराज श्रेणिकने फिर पूछा कि हे स्वामिन् ! पहिले भवमें इसने कौनसा दान दिया था, कौनसी पूजा की थी अथवा कौनसा तप किया था जिसके पुण्यसे यह ऐसा देव हुआ है, हे स्वामिन्! आप कृपाकर सब मुझसे कहिये || १७२ ॥ | यह सुनकर श्री गौतम गणधर कहने लगे कि हे श्रेणिक ! तू मन लगाकर सुन, में पुण्य बढ़ानेवाली इसकी कथा कहता हूँ ॥ १७३ ॥ ३९७ इसी तेरे नगर में एक नागदत्त नामका सेठ रहता था । वह सेठ अत्यन्त मायाचारी था, उसकी स्त्रीका नाम भवदत्ता था || १७४ | किसी एक दिन वह सेठ आर्तध्यानसे मरा और उस आर्तध्यानके पापके फलसे अपने ही घरके आँगनकी बावड़ी में मेंढक हुआ || १७५ || जब पानी भरनेके लिये उसकी स्त्री उस बावड़ी में आई तब उसे देखकर उसे जातिस्मरण हो गया और पहिले भवके मोहके कारण वह उस भवदत्ताके शरीरपर उछलकर चढ़ने लगा, परन्तु भवदत्ताने वह नीच मेंढक बहुत दूर फेंक दिया, परन्तु पूर्वकर्मोंके उदयसे वह मेंढक चिल्लाता हुआ टर्रटर करता हुआ फिर शीघ्रता से आकर उसके ऊपर चढ़ने लगा ।।१७६ - १७७॥ तब उस बुद्धिमती भवदत्ताने अपने मनमें समझ लिया कि सह मेरा कोई अभीष्ट (सम्बन्धी - या मुझसे प्रेम रखनेवाला) होगा ।। १७८ ।। तदनन्तर किसी एक दिन उस सेठानीने अवधिज्ञानसे सुशोभित श्री सुव्रत नामके मुनिराजसे उस मेंढककी कथा पूछी || १७९ || तब मुनिराजने कहा कि हे पुत्री ! यह तेरे पतिका जीव पापकर्मके उदयसे अत्यन्त दुःखी मेंढक हुआ है ॥१८०॥ भवदत्ताने उस मेंढकको अपने पतिका जीव जानकर मोहके कारण तथा उसपर भक्ति करनेके लिये उसे अपने घर लाकर बड़े आदरसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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