SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९२ श्रावकाचार-संग्रह अनुत्खत्य प्रवेशं तं मुनिः निस्सारितो द्रुतम् । राज्ञा कृत्वा महाश्चर्यमहो धीरगुणो मुनिः ॥११० ततः कृत्वाऽऽत्मनो निन्दां सद्धमंस्य रुचिर्मुहुः । गर्हा च मुनिसत्पादौ प्रणम्य च क्षमा त्वया ॥ १११ पश्चाद्रोगविनाशार्थं दत्तं चैवोषधं त्वया । वैयावृत्ति विधायोच्चैः मुनये भक्तिपूर्वकम् ॥ ११२ ततो मृत्वा निदानेन कुले वैश्य समुद्भवे । इहोत्पन्ना सुरूपा हि त्वं पुण्याढ्यफलान्विता ॥११३ सर्वोषधद्धरेवात्र जाता चौषधदानतः । कर्लाङ्कताऽपि ते निन्द्या कचवारप्रपूरणात् ॥११४ पुण्यपापफलान्येव भुङ्क्ते जीवो भवार्णवे । मज्जनोन्मज्जनं कुर्वन्नित्यं चेन्द्रियलालसः ॥११५ श्रुत्वा तद्वचनं सागाद्वेराग्यं कर्मघातकम् । संसारदेहभोगेषु दुःखशोकविधायिषु ॥ ११६ मोचयित्वा तदात्मानं तत्समीपेऽपि सार्थिका । जाता प्रणम्य तत्पादौ ततः कुर्यात्तपोऽनधम् ॥११७ इति विमलसु दानादोषधाद्भोगयुक्ता अजनि वृषभसेना श्रेष्ठिपुत्री गुणाढया । सुवरनृपतिभार्या ऋद्धियुक्ता तपो तु विमलमपि सुकृत्वा देवलोकं गता सा ॥११८ कथामौषधदानस्य व्याख्याय कथयाम्यहम् । कथां श्रीश्रुतदानस्य कौण्डेशमुनिसम्भवाम् ॥ ११९ जम्बूद्वीपे प्रसिद्धेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । सद्ग्रामं कुरुमर्याख्यं भवेद्धमंसुखप्रदम् ॥ १२० गोविन्दो नाम गोपालो भवेत्तत्र शुभाशयः । दृष्टं तेनैकदा सारं पुस्तकं वृक्षकोटरे ॥१२१ और उसने विचार किया कि ये मुनि बड़े ही धीरवीर हैं, इनकी धीरवीरता आश्चर्यके योग्य है ॥१०९-११०॥ नागश्रीने यह देखकर अपनी बड़ी निन्दा की और अपनेको बारबार धिक्कारा । उसका धर्ममें प्रेम बढ़ गया और मुनिराजके चरणकमलों में नमस्कार कर उनसे क्षमा प्रार्थना की ॥१११।। तदनन्तर मुनिराजका रोग दूर करनेके लिये नागश्रीने उन्हें औषधि दी और भक्तिपूर्वक उन मुनिराजकी बहुत हो वैयावृत्य की ॥ ११२ ॥ | वहाँ से मरकर तू इस वैश्य कुलमें अत्यन्त रूपवान और पाप-पुण्यके फलको प्रगट करनेवाली वृषभसेना हुई है | ११३ || पहिले जन्ममें तूने मुनिराजको औषधदान दिया था उसके फलसे ही तेरे स्नानके जलमें समस्त रोगोंके दूर करनेकी शक्ति हो गई है । तथा मुनिराजकी अवज्ञा की थी इसलिए तू सागर में फेंक दी गई थी ॥ ११४ ॥ देखो इन्द्रियोंको तृप्त करने की लालसा करता हुआ यह प्राणी इस संसाररूपी समुद्रमें बारबार डूबता और उछलता हुआ अपने किये हुए पुण्य और पापोंका फल सदा भोगता रहता है ॥ ११५ ॥ मुनिराजके वचन सुनकर उस वृषभसेनाको कर्मोंको नाश करनेवाला अत्यन्त दुःख देनेवाले संसार शरीर और भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न हुआ ॥ ११६ ॥ तदनन्तर वृषभसेनाने अपने आत्माको संसारके बन्धनसे छुड़ाया, वह मुनिराजके चरणकमलोंको नमस्कार कर उन्हींके समीप अर्जिका हो गई और निर्दोष घोर तपश्चरण करने लगी || ११७ || इस प्रकार निर्मल औषधिदानके फलसे ही नागश्री अनेक प्रकारके भोगों को सेवन करनेवाली और अनेक गुणोंसे सुशोभित सेठकी पुत्री और राजाकी पट्टरानी वृषभसेना हुई थी उसे सर्वोषधि ऋद्धि प्राप्त हुई थी तथा निर्दोष तपश्चरण कर उसने स्वर्गलोककी सम्पदा प्राप्त की थी इसलिये प्रत्येक गृहस्थको सदा दान देते रहना चाहिये ||११८ ॥ इस प्रकार औषध दानमें प्रसिद्ध होनेवाली श्री वृषभसेनाकी कथा कहकर अब शास्त्रदानमें प्रसिद्ध होनेवाले कौंडेश मुनिको कथा कहता हूँ ॥ ११९ ॥ इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें धर्म और सुखसे भरपुर एक कुरुमरी नामका गाँव था || १२० || वहाँपर एक गोविन्द नामका गवालिया रहता था जो कि शुभ परिणामी था। उसने किसी एक दिन एक वृक्षके कोटरमें एक शास्त्रजी • देखे || १२१ ॥ उन्हें वह घर ले आया और प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगा। कितने दिनके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy