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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार तदादाय प्रपूज्याशु पश्चाद्दत्तं शुभप्रवम् । पद्मनन्दिमुनीन्द्राय भक्तिनिर्भरचेतसा ॥१२२ तत्पुस्तकमटव्यां च केचिद्भट्टारकाः जनैः । कारयित्वा महापूजां कृत्वा व्याख्याय प्रत्यहम् ॥ १२३ धृत्वा तु कोटरे तत्र गतो देशान्तरं ततः । गोपालेनापि तद्दृष्ट्वा कृत्वा पूजा निरन्तरम् ॥ १२४ गोविन्दोऽपि निदानेन मृत्वा तत्र शुभे दिने । ग्रामेऽपि ग्रामकूटस्य कौण्डेशाख्यः सुतोऽप्यभूत् ॥१२५ एकदा तं समालोक्य पद्मनन्दिमुनीश्वरम् । जातो जातिस्मरः सोऽपि ज्ञानदानप्रभावतः ॥ १२६ तत्क्षणं जातसंवेगो देहभोगभवादिषु । आवदे जिनमुद्रां स स्वर्गमुक्तिसुखप्रदाम् ॥१२७ ततः पारं गतो धीमान् समस्तश्रुतवारिधेः । ज्ञानावृत्युदयाभावाद भव्य श्रेणिप्रबोधकः ॥१२८ सकलश्रुतसमुद्रे पारमेवाप्त एव विदितनिखिलतत्त्वो ज्ञानदानप्रभावात् । घृतचरणसमग्रोऽपीह कौण्डेशनामा जयतु भुवनपूज्यः सन्मुनीन्द्रो गुणाढयः ॥१२९ प्रव्याख्याय श्रुतज्ञानफलं वक्ष्ये ततः कथाम् । वरां वसतिकाजातां शूकरस्योपमान्विताम् ॥१३० जम्बूपलक्षिते द्वीपे सत्क्षेत्रे भरताभिधे । मालवाख्ये शुभे देशे ग्रामोऽस्ति घटसंज्ञकः ॥१३१ देविलाख्यो भवेत्तत्र कुम्भकारोऽतिभद्रकः । धर्मिलाख्यो महादुष्टो नापितश्च कुमार्गगः ॥१३२ ताभ्यां प्रकारितं देवकुलं स्थित्यर्थमेव हि । पथिकादिजनानां च धर्मकीर्त्यादिहेतवे ॥१३३ एकदा वसतिर्दत्ता मुनये देवलेन वै । प्रथमं तत्र धर्मादिध्यानेनैव स्थितो मुनिः ॥ १३४ परिव्राजक आनीय धर्मलेन ततो धृतः । तत्र देवकुलाच्छ्रीघ्रं ताभ्यां निस्सारितो यतिः ॥१३५ वे शास्त्रजी उसने बड़ी भक्ति के साथ मुनिराज श्री पद्मनन्दिके लिये दे दिये ॥ १२२ ॥ मुनिराज पद्मनन्दि आदि कितने ही मुनियोंने वे शास्त्रजी पढ़कर अनेक लोगोंको धर्मोपदेश दिया, लोगोंसे उनकी महापूजा कराई और फिर उन्हें किसी कोटरमें रखकर देशान्तरको चले गये । गोपाल उन शास्त्रजीको कोटरमें देखकर फिर प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगा ।।१२३ - १२४ ॥ अन्तमें वह निदान करके मरा और किसी गाँव में उस गाँव के स्वामीके यहाँ कोंडेश नामका पुत्र हुआ || १२५ || किसी एक दिन उसे उन्हीं मुनिराज श्री पद्मनन्दिके दर्शन हुए और पहिले जन्ममें दिये हुए ज्ञानदानके प्रतापसे मुनिराजको देखते ही उसे जातिस्मरण हो आया ॥ १२६ ॥ उसी समय उसे संसार, शरीर और भोगोंसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने स्वर्ग मोक्षके सुख देनेवाली जिन दीक्षा धारण कर ली ॥१२७॥ थोड़े ही दिनमें ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे बुद्धिमान् और अनेक भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देनेवाला वह कौंडेश समस्त श्रुतज्ञानरूपी महासागरका पारगामी हो गया ॥१२८|| देखो ज्ञानदानके प्रभावसे श्री कोंडेश मुनिराज समस्त श्रुतज्ञानरूपी महासागरके पारगामो हो गये थे, समस्त तत्त्वोंके ज्ञाता हो गये थे, पूर्ण चारित्रको धारण करनेवाले हो गये थे, वे अनेक गुणोंसे विभूषित हो गये थे और समस्त संसारमें पूज्य हो गये थे ऐसे श्री कोंडेश मुनिराज सदा जयशील हों || १२९|| इस प्रकार ज्ञानदान में प्रसिद्ध होनेवाले कौंडेशकी कथा कह चुके । अब वसतिका दानमें प्रसिद्ध होनेवाले शूकरकी कथा कहते हैं ॥ १३० ॥ इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें मालवा देशके घटगाँवमें एक देवल नामका भद्र कुम्हार रहता था तथा उसी गाँवमें धर्मल नामका महादुष्ट और कुमार्गगामी एक नाई रहता था ॥ १३१ - १३२॥ उन दोनोंने मिलकर धर्म और कीर्तिकी वृद्धिके लिये तथा पथिकोंके ठहरनेके लिये एक धर्मशाला बनवाई थी || १३३|| किसी एक दिन देवलने वह धर्मशाला किसी मुनिराजके लिये दे दी । वे मुनिराज उसमें आकर धर्मध्यान धारण कर बैठ गये । तदनन्तर धर्मलने एक संन्यासीको लाकर वहीं बिठा दिया । वहाँपर मुनिराजको देखकर घर्मल और संन्यासी दोनोंने मिलकर मुनिराजको बाहर कर दिया ।। १३४ - १३५ ॥ शुद्ध ५० Jain Education International ३९१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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