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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
३९१ यत्प्रासाध्यं च यदूरं तत्सर्व जायते नृणाम् । अहो सद्वतमाहात्म्यादिन्द्रोऽपि किंकरायते ॥९७ तच्छ त्वा नृपतिः पश्चात्तापं कृत्वा स्वयं गतः । तामानेतुं क्षमां सापि कारिता वचनादिभिः ॥९८ आगच्छन्त्या तया दृष्टो मार्गे गुणधराधिपः । वनमध्येऽवधिज्ञानी मुनिभंव्यप्रबोधकः ॥९९ प्रणम्य चरणौ तस्य पार्वे दृष्टं स्वचेष्टितम् । प्राग्भवाजितपुण्येन भवं वृषभसेनया ॥१०० मुनिराह वशं कृत्वा शृणु देवि मनो निजम् । वक्ष्ये पूर्वभवं तेऽहं शुभाशुभसमन्वितम् ॥१०१ अत्रैव नगरे पुत्री नागश्रीः स्याद् द्विजस्य वे। सम्माजनं करोषि त्वं राज्ञो देवकुले सदा ॥१०२ तत्र देवकुले चैकदाऽपराल्ले समागतः । मुनिदत्ताभिधो धीरः प्राकाराभ्यन्तरे मुनिः ॥१०३ स्थितो निर्वातगर्तायां कायोत्सर्ग विधाय च । मौनं ध्यानसमारूढो ज्ञानी पर्यसंयुतः ॥१०४ प्रजल्पितं त्वया लोकमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ भो मुने । सम्मार्जनं करोम्यत्र प्रागतः कटकानृपः ॥१०५ आगमिष्यति त्वत्रैव गच्छान्यत्र त्वमेव हि । मुनिानसमालम्ब्य स्थितो मौनेन काष्ठवत् ॥१०६ रुष्टया च त्वया तस्योपरि सम्मार्जनं कृतम् । पूरयित्वा हि तद्गतं कचवारेण तत्क्षणम् ॥१०७ त्यक्तदेहो मुनिस्तत्र स्थितो मेरुरिवाचलः । जित्वा घोरोपसर्ग स स्वकर्मक्षयहेतवे ॥१०८ प्रभाते चागतेनैव तत्र क्रीडादिहेतवे । उच्छ्वसितं प्रदेशं तं दृष्ट्वा निच्छ्वसितं पुनः ॥१०९ सेनाके व्रतके प्रभावसे, उसके शीलके माहात्म्यसे तथा पुण्यकर्मके उदयसे जलदेवताने आकर सिंहासन रच दिया तथा और भी प्रातिहार्योंको रचना कर दी ॥९६|| देखो, व्रतोंके माहात्म्यसे संसारमें जो कुछ हो सकता है वह सब मनुष्योंको हो जाता है । इन व्रतोंके माहात्म्यसे स्वर्गका इन्द्र भी दास बन जाता है ॥९७।। वृषभसेनाकी यह महिमा सुनकर राजा उग्रसेन पश्चात्ताप करने लगा। उसको लेनेके लिये वह स्वयं गया और वचनोंके द्वारा उससे अनेक प्रकारको क्षमा माँगी ।।९८।। वह रानी वृषभसेना आ ही रही थी कि उसे मार्गके एक वनमें भव्य जीवोंको धर्मोपदेश करनेवाले अवधिज्ञानी श्री गुणधरमुनिके दर्शन हुए ॥९९॥ रानी वृषभसेनाने उनके चरणकमलोंको नमस्कार किया और समीप बैठकर अपने पहिले जन्मके भव पूछे ॥१००|| मुनिराज कहने लगे-हे पुत्री ! तू चित्त लगाकर सुन, मैं तेरे पुण्य-पापको सूचित करनेवाले पहिले भव कहता हूँ॥१०१॥ इसी पुण्यवती नगरीमें तू पहिले एक ब्राह्मणकी पुत्री थी। नागश्री तेरा नाम था। तू राजाके जिनभवनमें झाडू बुहारी देनेका काम किया करती थी॥१०२॥ किसी एक दिन महाराजके उसी जिनभवनमें भीतर मुनिदत्त नामके धीरवीर मुनिराज आकर वायुसे रहित एक गढ़में विराजमान हो गये ॥१०३।। वे ज्ञानी मुनिराज मौन और कायोत्सर्ग धारणकर पर्यकासनसे विराजमान हो गये ॥१०४॥ झाडू देते जब वह नागश्री मुनिराजके समोप आ गई तब वह मुनिराजसे कहने लगी कि "हे मुनिराज ! उठो उठो, मैं यहाँ झाडू दूंगी, महाराज आते ही होंगे, आप अब दूसरी जगह चले जाइये।" परन्तु मुनिराज न तो कुछ बोले और न हटे, क्योंकि वे तो ध्यानमें लीन थे, वे मौन धारण कर काठके समान अचल विराजमान थे ॥१०५-१०६।। तब नागश्रीमे क्रोधित होकर सब जगहसे झाड़ बुहार कर सब कचरे-कूड़ेका ढेर मुनिराजके चारों ओर लगा दिया और उस कूड़ेसे उस गढ़ेको ढक दिया ॥१०७॥ मुनिराज शरीरसे ममत्व छोड़कर मेरुपर्वतके समान निश्चल होकर अपने कर्मोको नाश करनेके लिये घोर उपसर्ग सहन करने लगे ।।१०।। प्रातःकाल ही वहाँपर क्रीड़ा आदिके लिए राजा आया। मुनिराजके श्वास लेनेसे वह कूड़ा-कचरा कुछ हिल रहा था, उसे देखकर राजाको सन्देह हुआ और उसने उसी समय उस स्थानसे कचरा-कूड़ा हटाकर मुनिराजको निकाला । उन धीरवीर मुनिराजको देखकर राजाको बहुत ही आश्चर्य हुआ
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