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________________ श्रावकाचार-संग्रह गन्तव्यं हि त्वया मेघपिङ्गालस्योपरि ध्रुवम् । इत्युक्त्वा प्रेषितस्ताम्यां पूर्ण वाणारसों प्रति ॥४ तदाकर्ण्य समालोच्य मर्मभेदी ममाप्ययम् । ज्ञात्वेति पृथिवीचन्द्रः आगतो मेघपिङ्गलः ॥८५ नमस्कारं विधायोच्चैरुग्रसेननपस्य सः । अति सम्मानितो जातः सामन्तो हितकारकः ॥८६ राज्ञोक्तं हि ममास्थानस्थितस्य प्राभृतं वरम् । यदागच्छति तत्सारं वस्तु वस्त्रादिकं स्फुटम् ॥८७ मेघपिङ्गलराजस्य तस्या खु ददाम्यहम् । साद्धं वृषभसेनाया व्यवस्थेति कृता स्वयम् ॥८८ एकदा प्रागतं रत्नकम्बलद्वयमेव हि । राजा नामाङ्कितं कृत्वा तयोर्दत्तं पृथक् पृथक् ।।८९ प्रावृत्य कम्बलं राज्ञी मेघपिङ्गलसत्पतेः । गता प्रयोजनेनैव रूपवत्या गृहे स्वयम् ॥९० जातं पापोदयेनैव तत्र कम्बलपल्लिहः (?) । अघोदयेन जन्तूनां कि कि न स्याद्विरूपकम् ॥९१ ततो वृषभसेनायाः कम्बलं मेघपिङ्गलः । प्रावृत्य खु समायातः उग्रसेनसभा स्वयम् ॥९२ । राजाभूच्च तमालोक्य रक्ताक्षोऽतिप्रकोपतः । तथाविधं नपं दृष्ट्वा नष्टोऽतो मेघपिङ्गलः ॥९३ उग्रसेनेन रुष्टेन निक्षिप्ताब्धिजले घने । राज्ञी वृषभसेनापि मारणार्थ च पापतः ॥९४ तवा तया गृहीतेति प्रतिज्ञा चोपसर्गतः । उद्धरियामि चेद् वृत्तं करिष्यामि तपोऽनघम् ॥९५ ततो व्रतप्रभावेण जलदेवतया कृतम । सिंहासनादिसत्प्रातिहार्य तस्या शभोदयात ॥९६ वह चित्र ले जाकर राजा उग्रसेनकी भेंट की और फिर राजा उग्रसेनको नमस्कार कर रानी वृषभसेनाकी बहुत प्रशंसा की ||८३।। राजा उग्रसेनने कहा कि तुम पिंगलको (मेघपिंगलको) पकड़कर लाना यह कहकर राजा रानी दोनोंने पृथ्वीचन्द्रको बनारसके लिये बहत शीघ्र विदा कर दिया ||८४॥ पृथ्वीचन्द्रके छूट जानेपर राजा मेघपिंगलने विचारा कि मेरे मर्मको जाननेवाला पथ्वीचन्द्र आ गया है यह सोच समझकर वह स्वयं राजा उग्रसेनके समीप आया और नमस्कारकर उसका सेवक बन गया। राजा उग्रसेनने भी उसका आदर-सत्कार किया और हित करनेवाले सामन्त पदपर नियुक्त किया ।।८५-८६॥ राजा उग्रसेनने आज्ञा दी कि मेरे यहाँ जो भेंट आवेगी तथा जो वस्त्र आभूषण आवेंगे उनमेंसे आधे राजा मेपिंगलको दिये जाँय और आधे रानी वृषभसेनाको दिये जाय। ऐसी व्यवस्था महाराज उग्रसेनने स्वयं कर दी ।।८७-८८।। किसी एक समय राजाकी भेंटमें दो रत्नकम्बल आए। राजाने दोनोंपर अलग-अलग नाम लिखकर दोनोंको दे दिये अर्थात् वृषभसेनाका नाम लिखकर वृषभसेनाको दे दिया और मेघपिंगलका नाम लिखकर मेघपिंगलको दे दिया ॥८९|| किसी एक समय किसी कामके लिये राजा मेघपिंगलकी रानी रूपवतीके (वृषभसेनाकी धायके) घर आई। देवयोगसे वा पापकर्मके उदयसे वहाँपर दोनोंके कंबल परस्पर बदल गये अर्थात् मेपिंगलका कंबल वहाँ रह गया और वृषभसेनाका कम्बल मेघपिंगलकी रानी ओढ़ गई । सो ठीक ही है, पापकर्मके उदयसे मनुष्योंके क्या-क्या विपरीत कार्य नहीं हो जाता है । ९०-९१|| किसी समय उस बदले हुए वृषभसेनाके कम्बलको ओढ़कर राजा मेघपिंगल बड़ी प्रसन्नताके साथ राजा उग्रसेनकी राजसभामें आया ॥२२॥ राजा उग्रसेन उस कंबलपर वृषभसेनाका नाम देखकर बहुत ही क्रोधित हुआ और क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो गये । अपने आनेसे ही राजाको इस प्रकार क्रोधित देखकर राजा मेपिंगल वहाँसे भाग गया ॥९३॥ मेघपिंगलको भागता हुआ देखकर राजा उग्रसेनका सन्देह और भी बढ़ गया। उसने वृषभसेनाके समीप आकर उसका कंबल देखा और उसपर मेपिंगलक नाम देखकर रानी वृषभसेनाको मारने लिये अथाह जलसे भरे हुए किसी सागरमें डलवा दिया ॥१४॥ उस समय रानी वृषभसेनाने प्रतिज्ञा की कि यदि में इस उपसर्गसे बचुंगी तो पाप रहित तीव्र तपश्चरण करूंगी ॥९५।। तदनन्तर वृषभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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