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________________ ३८९ प्रश्नोत्तरत्रावकाचार ततस्तया जलेनैव नोरोगी स कृतो नपः । राज्ञा नीरस्य माहात्म्यं पृष्टा रूपवतो तदा ॥६९ निरूपितं तया सत्यं राजा श्रेष्ठो समाहितः । विधाय गौरवं कन्यां परिणेतुं स याचितः ।।७० ततः सच्छेष्ठिना प्रोक्तं यदि राजन् ! करोषि वे । अष्टाह्निकों महापूजां बिम्बानां श्रीजिनालये ॥७१ पञ्जरस्थान् खगान् सर्वान् मनुष्यांचव मुश्चसि । कारागारात्तदा तेऽहं तां ददामि न चान्यथा ॥७२ उग्रसेनेन तत्सवं कृत्वा परिणीता हि सा । पट्टराज्ञो कृता स्नेहाज्जाता तस्यातिवल्लभा ॥७३ एकस्मिन् योऽपि प्रस्तावे वाणारस्या नपो धृतः । आस्तेऽत्र पृथिवीचन्द्रस्तद्विवाहे न मोचितः ॥७४ या नारायणदत्ताख्या तस्य राज्ञो.तया सह । मन्त्रीभिमन्त्रितो मन्त्रो मोहनाथ महोपतेः ॥७५ याणारस्यां तया नित्यं सत्काराः कारिताः शुभाः । राजी वृषभसेनाया नाम्ना भर्तृविमुक्तये ॥७६ ये तेषु भोजनं कृत्वा कावेरोपत्तनं गताः । श्रुतं तेभ्यो द्विजादिभ्यो धाच्या वृत्तान्तमेव तत् ॥७७ तदोक्तं रूपवत्या मां वाणारस्यां खु हे सखे । अपृच्छन्ती हि सत्काराह्वयं कारयसि स्वयम् ॥७४ प्ररूपितं महिष्याऽहं कारयामि स्फुटं न तान् । मन्नाम्ना कारितास्तेऽपि केनापि कारणादिना ॥७९ तेषां शुद्धि कुरु त्वं हि धात्र्या चरनरादिभिः । परिज्ञाय यथार्थं तदने राज्या निरूपितम् ॥८० ततो विज्ञाय राजानं पृथ्वीचन्द्राभिधो नपः । मोचितस्तत्क्षणादेव राज्या वृषभसेनया ॥८१ तेन सम्फलके रूपे नपराज्ञोश्च कारिते। अधः प्रणामसंयुक्तं निजरूपं सुकारितम् ॥८२ नीत्वा चित्रान्वितः सोऽपि फलकस्तेन दर्शितः । तयोः कृत्वा नमस्कारं सदराज्ञी शंसिता मुहुः ॥८३ नहीं है ॥६८॥ तदनन्तर वह राजा उस वृषभसेनाके स्नानके जलसे नोरोग हो गया। तब राजाने रूपवतीसे उस जलके माहात्म्यको बात पूछी ।।६९।। रूपवतीने सब ज्योंकी त्यों कह सुनाई। तब राजाने सेठको बुलाया, उस कन्याकी बड़ी प्रशंसा की और फिर अपने साथ विवाह करनेके लिये मांगी ॥७०। इसके उत्तरमें सेठने कहा कि हे महाराज! यदि आप अष्टाह्निकाके दिनोंमें जिनालयमें जाकर भगवान् अर्हन्तदेवकी पूजा कर, पिंजड़ोंमें रहनेवाले सब पक्षियोंको छोड़ दें और अपने कारागारसे (जेलसे) सब मनुष्योंको छोड़ दें तो मैं आपके लिये उस कन्याको दे सकता है ।।७१-७२।। महाराज उग्रसेनने यह सब स्वीकार कर उसके साथ विवाह कर लिया और उसे पटरानी बनाया। प्रेमके कारण वह वृषभसेना राजाकी बहुत ही प्यारी हो गई थी ॥७३॥ विवाहके समय राजा उग्रसेनने जब सबको छोड़ा था तब भी बनारसके राजा पृथ्वीचन्द्रको नहीं छोड़ा था ॥७॥ पथ्वीचन्द्रकी रानीका नाम नारायणदत्ता था, उसने अपने पतिको छुड़ानेके लिये मन्त्रियोंसे सलाह लेकर रानी वृषभसेनाके नामसे बनारसमें बहुतसे उत्तम-उत्तम सत्कारघर बनवाये ।।७५-७६॥ जो ब्राह्मणादिक उन सत्कारघरोंमें उत्तम भोजनकर कावेरी नगर में पहुँचे थे उनसे उन सब सत्कार घरोंका हाल रूपवती धायने सुना ॥७७|| तब उसने वृषभसेनासे कहा कि तूने बनारसमें अपने नामसे बहुतसे सत्कारघर बनवाये हैं सो क्या तूने विना मुझसे पूछे ही बनवा डाले? ||७८॥ इसके उत्तरमें पट्टरानी वृषभसेनाने कहा कि बनारसमें मैंने कुछ नहीं बनवाया है, किसी कारणसे मेरे नामसे किसी औरने बनवाये होंगे ||७९|| तब इसकी खोज करनेके लिये रूपवतीने बनारसके लिये बहुतसे गुप्तचर (छिपकर जांच करनेवाले) भेजे और यथार्थ बात जानकर रानीसे सब हाल कह सुनाया ।।८०|| तब महारानी वृषभसेनाने महाराजसे प्रार्थनाकर उसी समय राजा पृथ्वीचन्द्रको छुड़वा दिया ॥८१॥ वहांसे छूटकर पृथ्वीचन्द्रने एक चित्र बनवाया जिसमें राजा उग्रसेन और रानी वृषभसेनाका चित्र बनवाया और उनके नीचे प्रणाम करते हुए अपना चित्र बनवाया ॥८२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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