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________________ ३८८ श्रावकाचार-संग्रह देशे जनपदाल्ये च कावेरीपत्तने शुभे । उग्रसेननृपो जातः पूर्वोपाजितपुण्यतः ॥५५ श्रेष्ठी धनपतिस्तत्र धनश्रीवल्लभा शुभा । तयोर्वृषभसेनाख्या पुत्री जाता गुणान्विता ॥५६ तस्या रूपवती नाम धात्री शुद्धिसमन्विता । स्नानाञ्जनान्नसद्वस्त्रैः पोषिका स्याच्छुभोदयात् ॥५७ एकदा स्नानगर्तायां पुण्यात् रोगाढचकुकुरः । पतित्वा च लुठित्वापि त्यक्तरोगो बभूव स ॥५८ त्यक्तरोगं हि तं दृष्ट्वा श्वानं सञ्चितितं तया। पुत्रीस्नानजलं चात्र भवेदारोग्यकारणम् ॥५९ तया तदा परीक्षार्थ धौते मातुश्च लोचने। द्वादशाब्दमहाव्याधिनस्ते जाते शुभे स्वयम् ॥६० ततो जाता प्रसिद्धा सा धात्रीलोके सुलक्षणा। सर्वामयविनाशेषु मान्या सर्वजनैस्तथा ॥६१ एकदाऽप्युग्रसेनेन मन्त्री पिङ्गलसंज्ञकः । बहुसैन्यसमायुक्तः प्रेषितः शत्रुशान्तये ।।६२ मेघपिङ्गलराज्यस्य देशे यावस्थितस्य सः। तावज्ज्वरेण संग्रस्तो विषोदकप्रसेवनात् ॥६३ तत्र स्थातुमशक्तोऽपि ततो व्याघुटय चागतः । रूपवत्याशु नीरोगी कृतस्तेन जलेन सः॥६४ उग्रसेनो महाकोपावागतस्तत्र तथा ज्वरी। भूत्वा पुनः समायातोऽसमर्थः सङ्गरादिके ॥६५ जलवार्ता समाकर्ण्य राज्ञा मन्त्रिमुखात्स्वयम् । तज्जलं याचितं धात्र्याः पार्वे व्याधिविनाशनम् ॥६६ ततो धनश्रियाः प्रोक्तं पुत्रीस्नानजलं कथम् । क्षिप्यते मस्तके राज्ञः श्रेष्ठस्त्वं हि विचारय ॥६७ स आह जलवार्ता स नपो यदि च पृच्छति । कथनीयं तदा सत्यं दोषो नास्ति कदाचन ॥६८ पुण्यकर्मके उदयसे राजा उग्रसेन राज्य करता था ॥५५॥ उसी नगरमें एक धनपति नामका सेठ रहता था और उसकी स्त्रीका नाम धनश्री था। उन दोनोंके अनेक गुणोंसे सुशोभित वृषभसेना नामकी पुत्री हुई थी ॥५६॥ उसकी एक धाय थी जो बड़ी बुद्धिमती थी और रूपवती उसका नाम था। वह वृषभसेनाको स्नान कराया करती थी और वस्त्र पहिनाया करती थी ॥५७॥ किसी एक दिन जिस गढ़ेमें वृषभसेनाके स्नानका जल भर रहा था उसमें एक रोगी कुत्ता गिर गया। वह उस गढ़ेमें कुछ लोटा पोटा और फिर नीरोग होकर उसमेंसे निकल आया ॥५८॥ उसे नीरोग होकर निकलते देखकर धायने यह विचार किया कि अवश्य ही इस वृषभसेनाके स्नानका जल रोगोंको दूर करनेका कारण है ॥५९॥ तब उसने परीक्षा करनेके लिये अपनी माताकी आंखोंपर वह जल लगाया। माताकी आँखें बारह वर्षसे बिगड़ रही थीं वे उस जलके लगाते ही अच्छी हो गई ।।६०॥ तब तो वह सुलक्षणा धाय समस्त रोगोंके दूर करने में प्रसिद्ध हो गई और सब लोग उसे मानने लगे ॥६१॥ किसी एक समय राजा उग्रसेनने अपने पिंगल नामके मन्त्रीको बड़ी सेनाके साथ अपने शत्रु राजा मधुपिंगलके साथ युद्ध करनेके लिये उसीके देशमें भेजा, परन्तु मधुपिंगलने वहाँके जलोंमें विष डलवा रक्खा था इसलिये सेनाके सब लोग एक प्रकारके ज्वरसे रोगी हो गये ॥६२-६३।। वे लोग वहाँपर ठहर नहीं सके इसलिये लौटकर चले आए और रूपवती घायके द्वारा उसी वृषभसेनाके स्नानके जलसे अच्छे हो गये ॥६४॥ तब क्रोधित होकर राजा उग्रसेन स्वयं युद्ध करनेके लिये गया और उसी प्रकार रोगी होकर तथा युद्ध करने में असमर्थ होकर लौट आया ॥६५।। राजाने उस जलकी बात मंत्रीके मुखसे स्वयं सुनी और फिर रूपवती धायसे वह रोगोंको दूर करनेवाला जल मँगवाया ॥६६।। तब वृषभसेनाको माता धनश्रीने सेठसे कहा कि पुत्रीके स्नानका जल राजाके मस्तकपर किस प्रकार डालना चाहिये जरा इसका भी तो विचार कीजिये ॥६७॥ तब सेठने उत्तर दिया कि यदि महाराज जलकी बात पूछेगे तो सच बात ज्योंकी त्यों कह दी जायगी फिर इसमें कोई दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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