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श्रावकाचार-संग्रह विशिष्टं भोजनं दत्वा बहु स्वर्ण च तस्य वै । लगित्वा पादयोः पृष्टं कपिलस्य कुलं तथा ॥२८ ततस्तेन स्वयं सत्यमुक्तं पुत्रि ! तव प्रियः । मदीयश्चेटिकासूनुः कपिलोऽयं द्विजोऽधमः ॥२९ तदाकण्यं विरक्ता सा चिन्तयामास मानसे । वरं भुक्तं विषान्नं न नरं होनकुलप्रजम् ॥३० ततस्त्यक्त्वाऽपि तं दुष्टं शीलभङ्गभयाद द्रुतम् । सिंहादिनिन्दिता देव्याः प्रविष्टा शरणं च सा ॥३१ तया सा प्रतिपन्नाऽपि धर्मपुत्री शुभोदयात् । सत्यभामा स्थिता तत्र दानपूजादिसंयुता ॥३२ एकदा तद्गृहे धोरावागतौ चारणौ मुनी । आहारार्थ जगत्पूज्यो ध्यानाध्ययनतत्परौ ॥३३ दृष्ट्वा तो स्थापितौ राज्ञा प्रणम्य चरणद्वयम् । अर्ककोतिर्मुनिज्येष्ठश्वामितादिगतिः लघुः ॥३४ ततो दत्तो वराहारो मुनिभ्यां विधिवत्स्वयम् । श्रोषणनरेशेण भक्तितत्परचेतसा ॥३५ दानकाले महापुण्यं धीषणेन यथाजितम् । तथा दानानुमोदेन राज्ञीभ्यां सत्यभामया ॥३६ तत्फलेन मृतो राजा राज्ञीभ्यां सह निश्चितम् । उत्कृष्टभोगभोमौ च सादृश्यशुभयोगतः ॥३७ ब्राह्मणी सत्यभामापि तत्र जाता मनोहरा । आर्यादानानुमोदादिजातपुण्यविपाकतः ॥३८ सद्वस्त्रगृहसन्मालाभूषणादिसमन्वितम् । मनोभिलषितं नित्यं निरौपम्यं शुभावहम् ॥३९ सर्वेन्द्रियसमाह्लावकारणं समप्रीतिजम् । पल्यत्रयप्रमाणायूःरोगक्लेशादिविच्युतम् ॥४० ईदृशं दशभेदं सा कल्पद्रुमद्विपञ्चजम् । भुङ्क्ते तत्र सुखं चायुः स्वपुण्यफलपाकतः ॥४१ समय स्पष्ट शब्दोंमें कह सुनाया कि ये मेरे पिता हैं ॥२७॥ किसी एक दिन सत्यभामाने रुद्रभट्टको बहुत ही उत्तम भोजन खिलाया और उसे बहुत-सा सुवर्ण देकर तथा उसके पैरों पड़कर कपिलका कुल पूछा ॥२८॥ तब रुद्रभट्टने सच बात कह दी और कह दिया कि हे पुत्री! यह कपिल नामका तेरा पति मेरी दासीका पुत्र नीच ब्राह्मण है ॥२९।। इस बातको सुनकर वह अपने मनमें बड़ी विरक्त हुई और विचार करने लगी कि विष मिला भोजन खा लेना अच्छा, परन्तु हीन कुल मनुष्यके साथ रहना अच्छा नहीं ॥३०॥ तदनन्तर उसने उस दुष्टका त्याग कर दिया और अपने शीलभंग होनेके भयसे वह महाराज श्रीषेणकी रानी सिंहनन्दिता तथा अनिन्दिताके शरणमें जा पहुँची ॥३१।। सिंहनन्दिताने उसे अपनी धर्मपुत्री मानकर रक्खा। इस प्रकार दान पूजा आदि कार्योको करती हुई वह सत्यभामा वहाँ रहने लगी ॥३२॥ किसी एक दिन ध्यान और अध्ययनमें तत्पर रहनेवाले दो चारण मुनिराज आहारके लिये महाराज श्रीषेणके घर पधारे ॥३३॥ उन्हें देखते ही महाराजने उन्हें स्थापन किया और उनके चरणकमलोंको नमस्कार किया। उन दोनों मुनिराजोंमें अर्ककीति बड़े थे और अमितगति छोटे थे ॥३४॥ तदनन्तर भक्ति करने में तत्पर रहनेवाले महाराज श्रीषेणने उन दोनों मुनिराजोंको विधि-पूर्वक उत्तम आहार दिया ॥३५।। जिस प्रकार महाराज श्रीषेणने वह आहारदान देकर महापुण्य उपार्जन किया उसी प्रकार उस दानकी अनुमोदना करनेके कारण दोनों रानियोंने और सत्यभामाने भी पुण्य उपार्जन किया ॥३६॥ उस दानके फलसे राजा श्रीषेण अपनी दोनों रानियोंके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ। तथा ब्राह्मणी सत्यभामा भी आहारदानकी अनुमोदना करनेसे और उसके ही सदृश पुण्यके फलसे उसी उत्तम भोगभूमिमें आर्या हुई ॥३७-३८॥ वहाँपर वस्त्रांग, गृहांग, मालांग, भूषणांग आदि सब तरहके कल्पवृक्ष थे, उनके कारण अपनी इच्छानुसार, उपमा रहित, स्वभावसे उत्पन्न होनेवाले, समस्त इन्द्रियोंको प्रसन्न करनेवाले और समान प्रेम उत्पन्न करनेवाले भोग अपने पुण्य कर्मके उदयसे भोगने लगे। इस प्रकार दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए दश प्रकारके भोग विना किसी रोग क्लेश आदि वाधाओंके उन आर्य और आर्याओंने तीन पल्य तक भोगे ॥३९-४१।। इस प्रकार सुखपूर्वक अपनी आयु पूरीकर राजा श्रीषेण
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