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श्रावकाचार-संग्रह चित्रकूटेऽत्र मातङ्गी यामानस्तमितव्रतात् । स्वभमारिता जाता नागधीः सागराङ्गजा ॥१५ स्थूलहिंसानृतस्तेयमैथुन ग्रन्थवर्जनम् । पापभीरुतयाभ्यस्येद् बलवीर्यनिगृहकः ॥१६ छूते हिंसानृतस्तेयलोभमायामये सजन् । क्व स्वं क्षिपति नानर्थे वेश्याखेटान्यदारवत् ॥१७ मद्यपलमधुनिशाशनपश्चफलीविरतिपञ्चकाप्तनुती। जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः१८ यावज्जीवमिति त्यक्त्वा महापापानि शुद्धधीः । जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः स्यात्कृतोपनयो द्विजः ॥१९
जाता जैनकुले पुरा जिनवृषाभ्यासानुभावाद गुणेर्येऽयत्नोपनतैः स्फुरन्ति सुकृतामग्रेसराः केऽपि ते। येऽप्युत्पद्य कुक्कुले विधिवशाहीक्षोचिते स्वं गुणे
विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि पुनन्त्वन्वीरते तेऽपि तान् ॥२० आदिकको भी उपयोगमें नहीं लावे ॥१४॥ भावार्थ-दिनकी अपेक्षा रात्रिको खानेसे लोलुपता अधिक बढ़ती है । रात्रिमें सूर्य-प्रकाशके न होनेसे रात्रिञ्चर छोटे-छोटे जीव अधिकतासे विचरने लगते हैं, इसलिये रातको भोजन बनाने तथा खानेमें उनका घात होता है । तथा भोजनके संसर्ग से खानेमें रोगोत्पादक जन्तु आ जानेसे नाना प्रकारके भयंकर रोंगोंको उत्पत्ति हो जानेकी अधिक सम्भावना रहती है। इसलिये मद्यादिकके समान रात्रिभोजन भी छोड़ना चाहिए तथा अगालित जल आदिकपेय पदार्थोंका भी उपयोग नहीं करना चाहिये। इस भरतक्षेत्रमें चित्रकूट नगर में एक पहरमात्र पालित रात्रिभोजनत्यागवतके प्रभावसे जागरिकनामक अपने पतिके द्वारा मारी गई एक चाण्डालकी कन्या सागरदत्त सेठकी कन्या नागश्री हुई। विशेषार्थ-चित्रकूट नगरमें एक चाण्डालकी कन्याने रात्रिभोजन त्यागव्रत लिया था। उसे व्रत लिये एक ही पहर हुआ था कि उसके पतिने रात्रिमें भोजन करनेका आग्रह किया परन्तु उसने व्रतभंग नहीं किया, तब उसके पति जागरिकने उसे इतना पोटा कि वह मर गई । तब वह व्रतके प्रभावसे सागरदत्त सेठके यहाँ नागश्री नामकी कन्या हुई । एक पहरमात्र रात्रिभोजन त्यागका जिनागममें इतना फल बताया है ।।१५।। शक्ति और सामर्थ्यको नहीं छिपानेवाला पाक्षिक श्रावक पापके डरसे स्थूलहिंसा,स्थूल झूठ,स्थूल चोरी,स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रहके त्यागका अभ्यास करे ।।१६।। वेश्यासेवन, शिकार खेलना और परस्त्रीसेवनकी तरह हिंसा, झठ, चोरी, लोभ और मायाकी अधिकता सहित जुआमें आसक्त व्यक्ति अपनी जाति व आत्माको किस अनर्थमें नहीं गिराता है। अर्थात् सभी अनर्थों में अपने आपको गिराता है ॥१७॥ मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पञ्चोदुम्बरफलत्याग, देबवन्दना, जीवदया और जलगालन इस प्रकार किसी आचार्यने ये आठ मूलगुण कहे हैं ॥१८॥ पूर्वोक्त अनन्त संसारके कारणभूत मद्यपानादिक पापोंको छोड़कर सम्यक्त्वके द्वारा विशुद्ध बुद्धिवाला और किया गया है यज्ञोपवीत संस्कार जिसका ऐसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जैनधर्मके सुननेका अधिकारी होता है ।।१९।। जो जैन व्यक्ति पूर्वभवमें भी जैन थे। वहाँ सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्मके अभ्यासके प्रभावसे वर्तमान भवमें भी अनायास प्राप्त हुए सम्यक्त्वादिक गुणोंसे अन्य लोगोंके चित्तमें चमत्कार करते हैं, वे विशेष पुण्यवान् हैं, परन्तु इनकी संख्या बहुत कम है। तथा जो व्यक्ति जिन कुलोंमें विद्या और शिल्पसे भिन्न कार्योंसे आजीविका होती है तथा जो मुनि वा श्रावककी जैनदीक्षाके लिये उपयुक्त हैं--ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुलमें मिथ्यात्व सहित पुण्योदयसे उत्पन्न होकर श्रावकोंके वक्ष्यमाण अवतार आदिक आठ गुणोंसे अपनेको पवित्र करते हैं, वे भी जैन कुलोत्पन्न व्यक्तियोंके पमान हैं ।।२०।। धर्माचार्य या गृहस्थाचार्यके उपदेशसे प्रमाणों और नयोंसे निश्चित सातों तत्त्वोंको
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