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________________ सागारधर्मामृत प्राणिहिंसापितं दर्पमर्पयत्तरसं तराम् । रसयित्वा नृशंसः स्वं विवर्तयति संसृतौ ॥८ भ्रमति पिशिताशनाभिध्यानादपि सौरसेनवस्कुगतोः। तद्विरतिरतः सुगति यति नरश्चण्डवत्खदिरवद्वा ॥९ प्राण्यङ्गत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मासं न धामिकैः । भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनेयिव नाम्बिका ॥१० मधुकृवातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुशः । खादनबध्नात्यघं सप्तग्रामदाहाहसोऽधिकम् ॥११ मधुवन्नवनीतं च मुञ्चेत्तत्रापि भूरिशः । द्विमुहूर्तात्परं शश्वत् संसजन्त्यङ्गिराशयः ॥१२ पिप्पलोदुम्बर-प्लक्षवट-फल्गुफलान्यदन् । हन्त्याणि प्रसान् शुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः ॥१३ रागजीववधापायभूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् । रात्रिभक्तं तथा युंज्यान्न पानीयमगालितम् ॥१४ अनन्त निगोदिया जोवोंकी उत्पत्ति सदा होती रहतो है। वह मांस अपक्व, पच्यमान अथवा पक्व किसी भी दशामें वनस्पतिकी तरह प्रासुक नहीं होता; क्योंकि उसमें भी निगोदिया जीव सदैव उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिये अपने आप मत प्राणोके मांसके भक्षण और स्पर्शनसे भी द्रव्याहिंसा होती है तथा उसके भक्षणसे आत्मा में करता उत्पन्न होती है इसलिये भावहिंसा भी होती है ॥७॥ मांसको प्राप्ति प्राणियोंके घातसे होती है तथा उसमें हरसमय अनेक जीव उत्पन्न होते और मरते रहते हैं । इसलिये मांसभक्षणमें द्रव्यहिंसा होती है। तथा मांसभक्षण करनेवाले का अन्तःकरण दयाहीन होता है इससे उसके द्वारा सदैव क्रूरकर्म किये जाते हैं। इसलिये मांसभक्षणमें भावहिंसा भी होती है। मांसभक्षी धर्मरहित होकर संसारमें परिभ्रमण करता है ॥८॥ जैसे मांसभक्षणके त्यागसे चण्डनामक चांडाल तथा खदिरसार नामक भोलराजने सद्गति पायी और सौरसेन राजाने मांसभक्षणके विचारमात्रसे नरकगति पाई। वैसे ही प्रत्येक प्राणी मांसभक्षणके सङ्कल्पमात्रसे दुर्गति तथा उसके त्यागके संकल्पसे हो सद्गति पाता है ॥९॥ कोई कहते हैं कि जिसप्रकार एकेन्द्रिय जीवका शरीर होनेपर भी मूंग और गेहूँ आदि पदार्थ खाने में कोई दोष नहीं, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय जीवका शरीर होनेपर भी मांस खाने में दोष नहीं। उनका यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि जिसप्रकार माता और पत्नी दोनों ही स्त्री हैं तो भी माता पूज्य और स्त्री भोग्य होती है, दोनों में सदृश व्यवहार नहीं होता, उसीप्रकार अन्न और मांसमें भी जीवशरीरत्वकी अपेक्षा समानता है, तो भी अन्न भक्ष्य है; मांस भक्ष्य नहीं ॥१०॥ मधुमक्खियाँ पुष्पादिकोंका रस चूसकर अपने छत्तमें मधु इकट्ठा करती हैं । वह उनका वमन है इससे अपवित्र है । मधुमें छोटी छोटी बहुत मक्खियोंका भी वध हो जाता है । इस अपेक्षासे मधुके भक्षण में सप्तग्रामके भस्म करनेसे भी अधिक पाप लगता है ।।११।। जिस प्रकार मधु में निरन्तर त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार दो घड़ीके पश्चात् मक्खनमें भी प्रतिसमय सम्मूच्र्छन जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है, इसलिये मद्यादिकके समान मक्खनका भी त्याग करना चाहिये ।।१२॥ वृक्षके काठको फोड़कर उसके दूधसे उत्पन्न होनेवाले फलोंको क्षीरिफल कहते हैं। उनमें पीपल, ऊमर, पाकर, वट और कठूमर इन पाँच उदुम्बर फलोंमें सूक्ष्म जीव ठसाठस भरे रहते हैं। उनको फोड़कर देखनेसे उनमेंसे बहुतसे स्थूल जीव बाहर भी उड़ पड़ते हैं। परन्तु स्वादकी लोलुपता आदि कारणोंसे जो इन गीले फलोंको खाता है वह प्रत्यक्ष जीववधके कारण द्रव्यहिंसाका, तथा सूखोंको खानेसे लोलुपता आदिके कारण आत्मगुणका विघातक होनेसे भावहिंसाका पात्र होता है ॥१३॥ पाक्षिक श्रावक मद्यपानादिककी तरह रागको अधिकतासे, हिंसाकी अधिकतासे और हानि या रोगकी अधिकतासे रात्रिभोजनको छोड़ देवे और अगालित पीने योग्य जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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