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________________ द्वितीय अध्याय त्याज्यानजस्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य, गृहिधर्मोऽनुमन्यते ॥१ तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्, पञ्च क्षीरिफलानि च ॥२ अष्टतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा । फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थाने इहैव वा ॥३ __ यदेकबिन्दोः प्रचरन्ति जीवाश्चेत्तत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । यद्विक्लवाश्चेमममूं च लोकं यस्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्येत् ॥४ पीते यत्र रसाङ्गजीवनिवहाः क्षिप्रं म्रियन्तेऽखिलाः कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यन्ति च । तन्मद्यं व्रतयन्न तिलपरास्कन्दीव यात्यापदं तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति ॥५ स्थानेऽश्नन्तु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचि कश्मलाः । श्वादिलालावदप्ययुः शुचिम्मन्याः कथं नु तत् ॥६ हिंस्रः स्वयम्मृतस्यापि स्यावश्नन्वा स्पृशन्पलम् । पक्वापक्वा हि तत्पेश्यो निगोदौघसुतः सदा ॥७ धर्माचार्य तो सबसे पहिले मुनिधर्म पालनका उपदेश करते हैं परन्तु जो भव्य विषयोंको त्याज्य समझता हुआ भी प्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र उदयसे उनको नहीं छोड़ सकता इसलिये मुनिधर्म धारण करने में असमर्थ है, उसको श्रावकधर्मका उपदेश दिया जाता है ॥१॥ सबसे पहिले जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका श्रद्धान करते हुए हिंसाका त्याग करनेके लिए मद्य, मांस, मधु और पांच क्षीरीफलोंका त्याग करना चाहिये । अर्थात् इन आठ मूलगुणोंका धारण करना आवश्यक है ।।२।। श्रीसोमदेव सूरिने तीन मकार और पाँच उदुम्बरोंके खानेके त्यागको अष्ट मूलगुण कहा है । स्वामी समन्तभद्रने तीन मकार और पंच पापोंके परित्यागको अष्ट मूलगुण बतलाया है तथा जिनसेनाचार्यने मद्य, मांस, जुआ तथा पंच पापोंके परित्यागको अष्ट मूलगुण बतलाया है ॥३॥ यदि मद्यकी एक बूंदके जीव फैल जावें तो वे तीनों लोकोंको भर सकते हैं। इस बिन्दुमात्र भी मद्यके पीने में उतने प्राणियोंके घातका पाप लगता है और मद्यसे मोहित व्यक्ति इस लोक तथा परलोक में दुःख पाता है। इस कारण आत्मकल्याणकी इच्छासे मद्यका परित्याग अवश्य करना चाहिये ॥४॥ मद्यके रसमें असंख्यात जीव होते हैं। उसके पीनेसे उन सबका मरण होता है। मद्यपानसे मन व शरीर में एक प्रकारकी अनुचितं उत्तेजना पैदा होती है। उस उत्तेजनासे मनुष्य अविचारी होकर अगम्यागमन, अभक्ष्यभक्षण, अपेयपान आदि नाना प्रकारके अन्यायोंमें प्रवृत्त हो जाता है। माता बहिन आदिको भूल जाता है । गुरुजनोंसे कोप करता है। भयातुर होता है और मूच्छित हो जाता है। धूर्तिलनामक चोर, चोर होकर भी ( चोरीका त्याग न कर सकने पर भी ) देवादिकके समक्ष केवल मद्यपानके त्यागके प्रभावसे विवेकी बनकर सब प्रकारकी आपत्तियोंसे मुक्त हुआ। तथा एकपाद नामक संन्यासी वैरागी होकर भी केवल मद्यपानकी बुरी आदतसे दुराचारी बनकर नरक में गया । इन उदाहरणोंसे हानिकारक समझकर मद्यका त्याग करना ही श्रेष्ठ है ॥५।। मांस की उत्पत्ति सप्तधातुसे निर्मित अपवित्र शरीरके घातसे होती है तथा शिकारी कुत्ते वगैरहकी लार भो उसमें मिल जाती है। इस प्रकार कारणोंसे तथा स्वभावसे अपवित्र मांसको आचारविचारहीन नीच व्यक्ति खाते हैं, तो उनके विषयमें कुछ कहना व्यर्थ है। परन्तु अपनेको पवित्र माननेवाले उच्चवर्गके व्यक्ति उस मांसको खाते हैं, यह बड़ा आश्चर्य है ।।६।। मांसके टुकड़ोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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