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सागारधर्मामृत स्वाध्यायं च विधातुमादृतकृषी-सेवावणिज्यादिकः, शुद्धयाप्तोदितया गृहो मललवं, पक्षादिभिश्च क्षिपेत् ॥१८ स्यान्मैत्र्याधुपवृंहितोऽखिलवधत्यागोन हिंस्यामहं धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं, दोषं विशोध्योज्झतः । सूनौ न्यस्य निजान्वयं, गृहमथो चर्या भवेत्साधनं,
त्वन्तेऽन्नेहतनूज्झनाद्विशदया, ध्यात्यात्मनः शोधनम् ॥१९ पाक्षिकादिभिदा त्रेधा, श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्ठो, नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥२० दान, स्वाध्याय, तप और संयम ये पाँच श्रावकके कर्तव्य कर्म है। परन्तु इन पांचों ही धार्मिक कार्योंका योग्यरीतिसे पालन, आजीविकाके उपायभूत कृषि आदिक कर्मोके किये बिना निराकुलता नहीं रहने के कारण हो नहीं सकता और कृषि आदिकके करने में पापसे बचाव हो नहीं सकता। इसलिये गृहस्थको जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कथित प्रायश्चित्तसे अथवा पक्ष,चर्या तथा साधनरूप श्रावक धर्म पालनसे कृष्यादिक छह कर्मोद्वारा होनेवाले पापोंको दूर करना चाहिये ॥१८।। धर्म, देवता, मंत्रसिद्धि, औषधि और आहार आदिके लिये मैं कभी 'संकल्प-पूर्वक त्रसजीवोंकी हिंसा नही करूंगा' इसप्रकारकी प्रतिज्ञा करके मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थ्य इन चार भावनाओंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ स्थूल झूठ आदि पापोंके त्याग सहित सम्पूर्ण त्रसजीवोंकी संकल्पी हिंसाके त्यागरूप अहिंसात्मक परिणामको पक्ष कहते हैं। परिणाममें वैराग्यकी वृद्धि होनेपर कृष्यादिक कर्मोंसे उत्पन्न हिंसादिक पापोंको प्रायश्चित्तके द्वारा दूर करके स्त्री, माता आदि पोष्पवर्गको, धनको तथा चैत्यालय वगैरह धर्मको अपने भारके चलने में समर्थ योग्य पुत्र या किसी अन्य वंशज वगैरहके सपर्दकर गहत्याग करनेको चर्या कहते हैं। चर्या में लगे हए दोषोंको प्रायश्चित्तसे दूर करके गह त्यागके अन्तिम समयमें अथवा मरण समयमें चतुर्विध आहार, योग की चेष्टा तथा शरीरमें ममत्वके त्यागसे उत्पन्न होनेवाले निर्मल ध्यानके द्वारा आत्मासे रागादिक दोषोंके दूर करनेको साधन कहते हैं ॥१९॥ श्रावकके तीन भेद हैं-पाक्षिक श्रावक, नैष्ठिक श्रावक, साधक श्रावक । उनमेंसे जिसके एकदेश हिंसादिक पंच पापोंके त्यागरूप श्रावकधर्मका पक्ष है तथा जो अभ्यास रूपसे श्रावकधर्मका पालन करता है, उसको पाक्षिक श्रावक ( प्रारब्ध देशसंयमी ) कहते हैं। जो निरतिचार श्रावकधर्मका पालन करता है, उसको नैष्ठिक श्रावक ( घटमान देशसंयमी ) कहते हैं तथा जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है और जो आत्मध्यानमें तत्पर होकर समाधिमरण करता है, उसको साधक श्रावक (निष्पन्न देशसंयमी ) कहते हैं ।।२०।।
इति प्रथमोऽध्यायः ।
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