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श्रावकाचार-संग्रह
मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः ।
दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ॥१५ रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिबंहिस्त्रसवधायहोव्यपोहात्मसु । सहग दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादशस्वेकं यः श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ॥१६
दृष्टया मूलगुणाष्टकं व्रतभरं, सामायिकं प्रोषधं, सच्चित्तान्नदिनव्यवायवनितारम्भोपधिम्यो मतात् । उद्दिष्टादपि भोजनाच्च विरतिं प्राप्ताः क्रमाप्राग्गुणप्रौढया दर्शनिकादयः सह भवन्त्येकादशोपासकाः ॥१७ नित्याष्टाह्निकसच्चतुर्मुखमहाः कल्पद्रुमेन्द्रध्वजा
विज्याः पात्रसमक्रियान्वयदया-दत्तीस्तपःसंयमान् । यश व सुख इन तीनोंमेंसे किसी एककी सिद्धिसे मानव-जीवनको सफल मानते हैं । लोकव्यवहारके अनुगामी तथा अपनेको आगमज्ञाता मानने वाले कोई व्यक्ति धर्म व यश, धर्म व सुख तथा यश व सुखकी सिद्धिसे ही मनुष्य-जीवनको सफल मानते हैं। किन्तु ग्रन्थकार कहते हैं कि वास्तवमें इन तीनोंके सेवनसे ही मानव-जीवन सफल होता है। अभिप्राय यह है कि-मनुष्यको प्रतिदिन अपनी शक्तिके अनुसार परस्परमें अविरोधभावसे धर्म, यश तथा सुख तीनोंका साधन करना चाहिये ॥१४॥ जो सम्यग्दृष्टि अष्ट मूलगुणों और बारह व्रतोंको परिपूर्ण रूपसे पालन करता है। पंच परमेष्ठियोंके चरणोंको शरण समझता है। प्रधानरूपसे चार प्रकारके दानों और पाँच प्रकारके पूजनोंको करता है तथा भेदविज्ञान रूपी अमृतको पीनेकी इच्छा रखता है उसे श्रावक कहते हैं। अर्थात् जो मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका एकदेश पालन करता है वह श्रावक कहलाता है ॥१५॥ रागद्वेष और मोहके सर्वघाती स्पद्धकोंके उदयाभावी क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रकट होने वाली निर्मल चिद्रूप आत्मा की अनुभूति से उत्पन्न होने वाले सुख के स्वसंवेदनज्ञान के द्वारा होने वाले अनुभव को अन्तरङ्ग प्रतिमा कहते हैं और मन वचन काय से स्थूल त्रसहिंसा आदिक पापों का देव गुरु धर्म की साक्षिपूर्वक त्याग करना बहिरङ्ग प्रतिमा कहलाती है । इस प्रकार जो सम्यग्दृष्टिः पुरुष पञ्चपाप के सर्वथा त्याग रूप मुनिधर्म में अनुरक्त होता हुआ अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग स्वरूप से युक्त देशव्रत नामक पंचम गुणस्थान के दार्शनिक, व्रतिक आदि ग्यारह स्थानों (प्रतिमाओं ) में से क्रम को भंग न करके किसी एक स्थान (प्रतिमा) को अपनी शक्ति के अनुसार धारण करता है, वह पुरुष ही अपने कर्तव्य का भली प्रकार पालन करता है इसलिये वह अभिनन्दनीय है ॥१६॥ दर्शन, व्रत आदि प्रतिमाओं के ग्यारह भेद हैं। अनादिकाल से चले आये हुए विषयों के अभ्यास से उत्पन्न असंयम को सहसा छोड़ नहीं सकनेके कारण यह जीव उन प्रतिमाओंको एक साथ धारण नहीं कर सकता इसलिये सम्यग्दर्शन और आठ मूलगुणोंकी परिपक्वताके साथ व्रत प्रतिमाको तथा अष्ट मूलगुण और बारह व्रतोंकी परिपक्वताके साथ सामायिक प्रतिमाको इस प्रकार पूर्व-पूर्वकी प्रतिमाओंके गुणोंकी वृद्धिके साथ-साथ आगे-आगेकी प्रतिमाओंका पालन करनेसे श्रावकोंके भी ग्यारह भेद हो जाते हैं ॥१७॥ नित्यमह, आष्टाह्निकमह, सच्चतुर्मुखमह; कल्पद्रुम मह और ऐन्द्रध्वज इस प्रकार पांच प्रकारका पूजन, पात्रदत्ती, समक्रियादत्ती, दयादत्ती और अन्वयदत्ती इसप्रकार चार प्रकारका
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