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________________ सागारधर्मामृत तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवतं, तद्दीक्षाप्रतापराजितामहामन्त्रोऽस्तदुर्देवतः। आङ्ग पौवंमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रान्तरः, पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन् धन्यो निहन्त्यंहसी ॥२१ शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुःशुद्ध्यास्ति तादृशः। जात्या होनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥२२ यजेत देवं सेवेत गुरूपात्राणि तर्पयेत् । कर्म धम्यं यशस्यं च यथालोकं सदा चरेत् ॥२३ यथाशक्ति यजेताहद्देवं नित्यमहादिभिः । सङ्कल्पतोऽपि तं यष्टा भेकवत्स्वमहीयते ॥२४ प्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धाविना पूजा चैत्यगृहेऽहंतः स्वविभवैश्चैत्यादिनिर्मापणम् । भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा वानं त्रिसन्ध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ॥२५ ग्रहणकर एकदेशव्रतकी दीक्षाके पहले धारण किया है महामन्त्र जिसने ऐसा छोड़ दिया है मिथ्या देवोंका आराधन जिसने ऐसा द्वादशांग सम्बन्धी और चतुर्दश पूर्व सम्बन्धी शास्त्रोंको पढ़कर, पढ़े हैं व्याकरण न्याय आदिक अन्य शास्त्र जिसने ऐसा तथा पर्वके दिन प्रतिमायोगको धारण करने वाला व्यक्ति अपने द्रव्य और भाव पापोंको नष्ट करता है ॥२१॥ वेशभूषा, आचार-विचार और शरीरको शुद्धिसे सहित शूद्र भी जैनधर्म सुननेका अधिकारी होता है। क्योंकि वर्णसे हीन भो प्राणी धर्माराधनयोग्य काल और देश आदिकके प्राप्त होनेपर श्रावकधर्मका आराधन करनेवाला होता है। भावार्थ-जिनका रहनसहन स्वच्छ है, जो मद्यादिकका सेवन नहीं करता और जो शरीरकी शुद्धिपूर्वक भोजन करता है वह वर्णहीन शूद्र भी धर्मश्रवणका अधिकारी है। क्योंकि उसका आत्मा यद्यपि जातिसे हीन है तथापि काललब्धि आदिके प्राप्त होनेपर वह भी धर्मश्रवणकर धर्मधारक हो सकता है ॥२२॥ श्रावक प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवको पूजे, सद्गुरुओंको सेवे, पात्रोंको सन्तुष्ट करे, तथा लोकव्यवहार या आप्तोपदेशके अनुसार धर्मसम्बन्धी और यशकारक कार्यको प्रतिदिन करे ॥२३॥ पाक्षिक श्रावक नित्यमह आदिक पूजाओंसे शक्तिके अनुसार जिनेन्द्रदेवको पूजे, क्योंकि संकल्पमात्रसे भी उन जिनेन्द्रदेवको पूजनेवाला व्यक्ति मेंढकके समान स्वर्गमें पूजा जाता है। विशेषार्थ-राजगृही नगरीमें एक मेंढक महावीर स्वामीकी पूजाकी इच्छासे केवल एक कमल-पत्रको मुहमें दबाकर वैभारगिरिपर्वत जा रहा था, किन्तु दुर्दैववश राजा श्रेणिक के हाथीके पैरके नीचे दबकर मर गया और पूजा करनेकी भावनामात्रसे स्वर्गमें देव हुआ । जब पूजनके संकल्पमात्रसे क्षुद्र मेंढकको इतना विशेष फल मिला तो भक्तिपूर्वक साक्षात् जिनपूजन करनेवाले मनुष्यको प्राप्त होनेवाले फलका कहना ही क्या है ? ॥२४॥ अपने घरसे लाये गये जल गन्ध आदि अष्ट द्रव्योंसे जिनमन्दिरमें अरिहन्त देवकी प्रतिदिन भक्तिसे पूजा करना, अपनी आर्थिकशक्तिसे मूर्ति और मन्दिर वगैरह का बनवाना, शास्त्रोक्त विधिसे गांव, घर, दुकान आदिका दान देना, अपने घरमें भी अरिहन्तकी तीनों संध्याओंमें की जानेवाली सेवा तथा मुनियोंको भी नित्य आहारदान देना है बादमें जिसके ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही गई है भावार्थ-जिन साधनोंसे पूजनके लिये सदैव सामग्री मिलती रहे, जिन साधनोंसे नित्यपूजनके लिये साधन प्राप्त होते हैं अथवा जिनसे पूजनका मार्ग सदैव खुला रहता है, उन साधन सामग्रीके दानके देनेको आगममें नित्यमह कहा है। जैसे-अपने घरकी सामग्रीसे रोज पूजन करना, जिनचैत्य-चैत्यालय निर्माण करना, मन्दिरके लिये अपनी स्थावर सम्पत्ति (ग्राम, गृह आदि ) देना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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