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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार अमलगुणनिधानं स्वान्तसपस्य मन्त्रं, विषयवनदवाग्नि कर्मकक्षे कुठारम् । सकलभुवनपूज्यं तीर्थनाथैः प्रणीतं, बुष भज परिमुक्त्यै चोपवासं सदा त्वम् ॥७५ स्वर्गश्रीरुपयाति तं च विमला मुक्तिस्तमालोक्यते, सद्वाणी स्वयमेव कीतिरतुला राज्यादिलक्ष्मीः ध्रुवम् । दुर्दान्तेन्द्रियमत्तहस्तिहनने सिंहोपमं धर्मदं पापारिक्षयवं बुधो हि कुरुते यः प्रोषधं पर्वसु ॥७६ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे प्रोषधोपवासप्ररूपको नाम एकोनविंशतिमः परिच्छेदः ॥१९॥ - है और साधु लोग भी इसकी सेवा करते हैं इसलिये हे भव्य ! निर्मल गुणोंको प्राप्त करने के लिये सारभूत पर्वके दिनोंमें तू इस प्रोषधोपवासको धारण कर ॥७४।। यह प्रोषधोपवास निर्मल गुणोंका निधान है, अपने हृदयरूपी सर्पको वश करनेके लिये महामन्त्र है, विषयरूपी वनको जला देनेके लिये दावानल अग्नि है, कर्मरूपी वनको काटनेके लिये कुठार है, तीनों लोक इसकी पूजा करता है और तीर्थंकर परमदेवने इसका निरूपण किया है। इसलिये हे विद्वन् ! मोक्ष प्राप्त करनेके लिये तू इस प्रोषधोपवासको सदा धारण कर ॥७५।। यह प्रोषधोपवास किसीके वश न होनेवाली इन्द्रियरूपी मदोन्मत्त हाथोको मारने वा वश करनेके लिये सिंहके समान है, धर्मको प्रगट करने वाला वा देनेवाला है और समस्त पापोंको नाश करनेवाला है इसलिये जो बुद्धिमान् प्रत्येक पर्वके दिनोंमें इस प्रोषधोपवासको धारण करता है उसके समीप स्वर्गको लक्ष्मी अपने आप आ जाती है, निर्मल मुक्ति भी उसे सदा देखती रहती है, श्रेष्ठ वाणी वा सरस्वती अपने आप आ खड़ी होती है, उसकी कीर्ति चारों ओर फैल जाती है और अनुपम मोक्षरूपी राज्यको लक्ष्मी उसे अवश्य प्राप्त होती है, अतएव गृहस्थोंको पर्वके दिनोंमें अवश्य प्रोषधोपवास करना चाहिए ॥७६॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्तिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें प्रोषधोपवासको निरूपण ___ करनेवाला यह उन्नीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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