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________________ बीसवाँ परिच्छेद महावतधरं धीरं वन्देऽहं मुनिसुव्रतम् । अनेकवतसन्दानप्रणीतं पुण्यहेतवे ॥१ शिक्षाव्रतं तृतीयं च व्याख्याय कथयाम्यहम् । चतुर्थं दानसञ्जातं स्वस्यान्यस्य हिताय वै ॥२ आहारं चौषधं शास्त्रदानं वसतिका जिनैः । चतुर्धा गृहिणां दानं प्रणीतं पुण्यहेतवे ॥३ ज्ञात्वा दानं तथा पात्रं विधि स्वर्मुक्तिप्राप्तये । चतुर्विधं महादानं दधीध्वं गृहनायकाः ॥४ उत्कृष्टमध्यनिकृष्टैर्भजन्ति पात्रतां भुवि । मुनिश्रावकसददृष्टिर्जनाः दर्शनशालिनः ॥५ सर्वसङ्गपरित्यक्ताः उक्ता सवृत्तगुप्तिभिः । धीरवीरास्तपस्तप्ताः सुखसंस्कारजिताः ॥६ मलेन लिप्तसर्वाङ्गास्त्यक्तदेहाः सुर्दुर्लभाः । तपसा क्षामसर्वाङ्गाः परीषहसहा वराः ॥७ मूलोत्तरगुणाढ्याश्चाप्यसंख्यगुणसागराः । लाभालाभे समा धीरा निन्दास्तुतिपराङ्मुखाः ॥८ तणहेमादिसंतुल्याः संसारं दुःखवारिधिम् । स्वयं तरन्ति भव्यानां क्षमास्तारयितुं बुधाः ॥९ कृतादिभिर्महादोषैस्त्यक्ताहारावलोकिनः । उच्चनीचगृहेष्वेव प्रविश्यन्तोऽतिनिस्पृहाः ॥१० इन्द्रियादिजये शूराः सर्वजीवहितप्रदाः । रत्नत्रयसमायुक्ता ज्ञानध्यानपरायणाः ॥११ सर्यापथसन्नेत्रा ये मुनीन्द्राः शुभाशयाः । रागद्वेषमदोन्मादभयमोहादिवजिताः ॥१२ जो महाव्रतोंको धारण करनेवाले हैं, धीरवीर हैं और अनेक व्रतोंको प्रदान करने में समर्थ हैं ऐसे श्री मुनिसुव्रत भगवान्को मैं पुण्य उपार्जन करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ ऊपरके परिच्छेदमें प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रतका व्याख्यान कर चुके । अब आगे अपने और दूसरोंके हित के लिये चौथे दान वा वैयावृत्य नामके शिक्षाव्रतको कहते हैं ।।२।। भगवान् जिनेन्द्रदेवने गृहस्थोंको पुण्य सम्पादन करनेके लिये आहारदान, औषधदान, शास्त्रदान और वसतिका दान ऐसे चार प्रकारका दान बतलाया है ॥३।। गृहस्थोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये दान, पात्र और विधिको जानकर चारों प्रकारका महादान देना चाहिए ॥४॥ इस संसारमें पात्र तीन प्रकारके हैंउत्तम, मध्यम और जघन्य । मुनि उत्तम पात्र हैं, श्रावक मध्यम पात्र हैं और असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं ।।५।। जो मुनिराज बाह्य आभ्यन्तर सब तरहके परिग्रहोंसे रहित हैं, जो श्रेष्ठ व्रत और गुप्तियोंसे शोभायमान हैं, धीरवीर आदि अनेक प्रकारके तपश्चरण करनेवाले हैं, जो सुखके सब संस्कारोंसे रहित हैं, धूल मिट्टी आदि मैलसे जिनका समस्त शरीर लिप्त हो रहा है, जिन्होंने अपने शरीरसे ममत्व छोड़ दिया है, जो संसारमें अत्यन्त दुर्लभ हैं, तपश्चरणसे जिनका सब शरीर कृश हो रहा है, जो परीषह सहन करने में चतुर हैं, मूलगुण उत्तरगुणोंसे सुशोभित हैं, असंख्यात गुणोंके सागर हैं, लाभ अलाभमें जिनके परिणाम एकसे रहते हैं, जो धीरवीर हैं, जो निन्दा स्तुति दोनोंसे प्रतिकूल हैं, तृण सुवर्ण दोनों में समान भाव रखते हैं, जो अनेक दुःखोंके सागर ऐसे संसारको स्वयं तरते हैं और दूसरोंको तार देने-पार कर देने में समर्थ हैं, जो कृत कारित अनुमोदना आदिके द्वारा किये हुए दोषोंसे सर्वथा रहित हैं, जो आहार करनेके लिये उच्चकुलो नीचकुली सबके घर विना किसी इच्छाके प्रवेश करते हैं, जो इन्द्रियोंको जीतने में शूरवीर हैं, सब जीवोंका हित करनेवाले हैं, रत्नत्रयसे सुशोभित है, ज्ञान ध्यानमें सदा तल्लीन रहते हैं, जिनके नेत्र सदा ईर्यापथमें लगे रहते हैं, जिनका हृदय शुभ है, जो राग द्वेष मोह मद उन्माद भय आदि विकारोंसे रहित हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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