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________________ ३६२ श्रावकाचार-संग्रह तपो विना पुमान् ज्ञेयः पशुरेव न संशयः । इहामुत्र भवेद दुःखी सर्वाह्नि परिभक्षणात् ॥६३ इति मत्वा तपो मित्र ! स्वशक्त्या कुरु प्रत्यहम् । धीर त्वं प्रकटीकृत्य स्वकर्मक्षयहेतवे ॥६४ नियमेनैव यो दध्याच्चतुःपर्वषु प्रोषधम् । पञ्चातिचारनिष्क्रान्तः श्रयेत् त्रैलोकजं सुखम् ॥६५ भगवन्तो व्यतीपातान् दिशध्वं कृपया मम । प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं ते स्थिरं कृत्वा मनो हि तान् ।।६६ अदृष्टामृष्टव्युत्तर्गादानसंस्तरणानि स्युः । प्रोषधेऽनादरः प्रोक्तस्ततश्चास्मरणं भवेत् ॥६७ प्रमार्जनावलोकाभ्यां विना भूमौ हि यः क्षिपेत् । कायादिजं मलं दोषमुत्सर्गाख्यं लभेत ना ॥६८ विना यो दृष्टमृष्टाभ्यां वस्त्रं पूजादिवस्तु वा । क्षुत्पीडितोऽभिगृह्णाति चादानातिक्रमं श्रयेत् ॥६९ पिच्छिकानेत्रकर्मभ्यां विना रात्रौ प्रमादतः । विधत्ते संस्तरं योऽस्य संस्तरातिक्रमो भवेत् ॥७० क्षुधादिपीडितो योऽपि पुमानावश्यकादिषु । अनादरं विधत्ते सः श्रयेद्दोषमनादरम् ॥७१ गृहकार्यादिसंसक्तो यः करोति न निश्चलम् । चित्तं कामार्थसंयुक्तं भजेदस्मरणं स ना ॥७२ कृत्वातिनिश्चलं चित्तं यो पत्ते प्रोषधं सुधीः । प्रमादानपि संत्यक्त्वा सोऽतीचारं लभेत न ॥७३ दुरितवनमहाग्नि धर्मवृक्षस्य मेघ, सकलसुखसमुद्रं दुःखदावाग्निवृष्टिम् । सुरशिवगतिमार्ग साधुलोकैः सुसेव्यं, भज विमलगुणाप्त्यै प्रोषधं पर्वसारे ॥७४ नहीं। उपवासरूपी तपश्चरणके विना लगातार सब दिन भक्षण करनेसे यह जीव अवश्य ही दुःखी होता है ॥६३।। यही समझकर हे धीर वीर मित्र ! अपने कर्मोको नष्ट करनेके लिये अपनी शक्तिको प्रगट कर तू प्रतिदिन तपश्चरण कर ॥६४॥ जो पाँचों अतीचारोंको छोड़कर प्रत्येक महीनेके चारों पर्वो में नियमपूर्वक प्रोषधोपवास करता है वह तीनों लोकोंके समस्त सुखोंको प्राप्त होता है ॥६५।। प्रश्न हे प्रभो ! कृपाकर उन अतिचारोंको मेरे लिये निरूपण कीजिये? उत्तरहे वत्स ! तू चित्त लगाकर सुन, मैं उन अतिचारोंका निरूपण करता हूँ॥६६॥ अदृष्टमृष्ट व्युत्सर्ग, अदष्टमष्ट आदान, अदृष्टमृष्ट संस्तरोपकरण, प्रोषधमें अनादर और अस्मरण ये पाँच प्रोषधोपवासके अतिचार गिने जाते हैं ॥६७॥ जो विना देखे विना शोधे अपने काममें आने योग्य जल आदिको पृथ्वीपर रख देता है उसके अदृष्टमृष्ट व्युत्सर्ग नामका दोष लगता है ॥६८॥ जो मनुष्य क्षुधासे पीड़ित होकर वा अन्य किसी कारणसे विना देखे विना शोधे वस्त्र वा पूजाके पदार्थों को ग्रहण करता है उसके अदष्टमृष्टदान नामका अतिचार लगता है ॥६९।। जो मनुष्य प्रमादके कारण रात्रिमें पीछेसे विना शोघे वा नेत्रोंसे विना देखे बिछौना वा सांथरा (सोनेके लिये चटाई आदिका बिछाना) करता है उसके अदृष्मृटष्ट संस्तरोपकरण नामका अतिचार लगता है ।।७०॥ जो मनुष्य क्षुधासे पीड़ित होकर (भूखसे घबड़ाकर) आवश्यक आदि कार्यों में अनादर करता है उसके अनादर नामका दोष लगता है ।।७१।। अपने हृदयको घरके काममें आसक्त रखनेवाला अथवा काम अर्थ इन दो ही पदार्थों में हृदयको आसक्त रखनेवाला जो पुरुष अपने चित्तको निश्चल नहीं करता है उसके अस्मरण नामका दोष लाता है। (जिसका चित्त निश्चल नहीं है उससे भूल हो जाना स्वाभाविक ही है इसलिये हर न रहना ही अस्मरण कहलाता है। ) ॥७२॥ जो बुद्धिमान् समस्त प्रमादोंको कोपा अपने हृदयको निश्चल कर प्रोषधोपवास करता है उसके कोई अतिचार नहीं लग पाता । यह प्रोषधोपवास पापरूपी वनको जलाने के लिये महा अग्नि है, धर्मरूपी वृक्षको बनाने के लिये मेघको धारा है, समस्त सुखोंका सागर है, दुःखरूपी दावानल अग्निको शान्त करनेके लिये पानीकी वर्षा है, स्वर्ग मोक्षका कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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