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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ३६१ तपसालङ्कृतो धीमान् यद् यद् वस्तु समीहते । तत्तदेव समायाति त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ॥५१ एकचित्तेन यो धीमान् मुक्तिस्त्रीरञ्जिताशयः । तपः करोति तस्यैव किञ्चिल्लोके न दुर्लभम् ॥५२ ये बुधाः मुक्तिमापन्ना यान्ति यास्यन्ति निश्चितम् । केवलं तपसा तेऽपि नान्येन केन हेतुना ॥५३ होने संहनने धोरा ये कुर्वन्ति तपोधनम् । स्वशक्ति प्रकटीकृत्य ते धन्या विदुषां मताः ॥५४ तीर्थनाथा ध्रुवं मुक्तिनाथा इन्द्रादिपूजिताः । तपः कुर्वन्ति तेऽत्यन्तं षण्मासावधिगोचरम् ॥५५ आदिश्रीजिनदेवोऽपि समं गणधरादिभिः । तपः करोति लोकेस्मिस्तमुन्यैः क्रियते न किम् ॥५६ तप्तं यथाग्निना हेमं शुद्धं भवति योगतः । जीवस्तपोग्निना तप्तः शुद्धो दृष्टयादियोगतः ॥५७ यद्वन्मलभृतं वस्त्रं शुद्धं नीरेण स्याद् ध्रुवम् । तपोजलेन धौतो हि जीवः शुद्धो भवेन्महान् ॥५८ ये तपो नैव कुर्वन्ति स्थूलदेहादिलम्पटाः । रोगक्लेशादिजं दुःखं ते लभन्ते भवे भवे ॥५९ तपोहोनो भवेद्रोगो दुःखदारिद्रयपीडितः । इहामुत्र महापापात् श्वभ्रतिर्यग्गतिं व्रजेत् ॥६० तपोलंकारत्यक्तो यो लिप्तः पापमलादिभिः । तस्य दुःखं न शक्तोऽहं वक्तुं श्वभ्रादिगोचरम् ॥६१ तपो यो न विधत्ते ना कुर्याद्रागादिरोगतः । लङ्घनादिसमूहं स पक्षमासादिगोचरम् ॥६२ सुशोभित होनेवाला बुद्धिमान् तीनों कालोंमें उत्पन्न होनेवाले और तीनों लोकोंमें रहनेवाले जिन जिन पदार्थों की इच्छा करता है वे सब पदार्थ उसके समीप अपने आप आ जाते हैं ॥५१॥ जिसका हृदय मुक्तिरूपी स्त्रीमें आसक्त है ऐसा जो बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित होकर तपश्चरण करता है उसके लिये इस संसारमें कोई पदार्थ दुर्लभ नहीं है ।।५२।। जो बुद्धिमान् पहिले मोक्ष जा चुके हैं, अब जा रहे हैं अथवा आगे जायेंगे वे केवल तपश्चरणसे ही गये हैं, तपश्चरणसे ही जा रहे हैं और तपश्चरणसे ही जायँगे । तपश्चरणके सिवाय अन्य किसी भी कारणसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ॥५३॥ जो धीरवीर पुरुष अपनी शक्तिको प्रगट कर तपश्चरणरूपी धनका संग्रह करते हैं वे विद्वानोंके द्वारा इस संसारमें धन्य माने जाते हैं ॥५४॥ तीर्थंकर परमदेव होनहार मोक्षके स्वामी हैं और इन्द्रादिक सब उनकी पूजा करते हैं परन्तु वे भी दो दिन चार दिन महीने दो महीने वा छह छह महीनेतकके उपवासवाले तपश्चरणको करते हैं ।।५५।। इस संसारमें भगवान् श्री ऋषभदेवने भी गणधरोंके साथ तपश्चरण किया था फिर भला अन्य लोगोंकी तो बात ही क्या है, उन्हें तो अवश्य करना चाहिए ।।५६।। जिस प्रकार सुहागा आदिके संयोगसे अग्निके द्वारा तपाया हुआ सोना शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन-संयोगसे तपरूपी अग्निके द्वारा तप्त हुआ यह जीव कर्ममल कालिमासे रहित होकर शुद्ध हो जाता है ।।५७।। जिस प्रकार मैल लगा हुआ वस्त्र पानीसे धोनेपर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार तपरूपी जलसे धुल जानेपर अत्यन्त नीच पुरुष भी शुद्ध हो जाता है ||८|| स्थूल शरीरमें आसक्त होकर जो पुरुष तपश्चरण नहीं करते वे पुरुष भव-भवमें रोग क्लेश आदिके बहुतसे दुःखोंको भोगते रहते हैं ।।५९।। जो तपश्चरण नहीं करता नह इस लोक रोग दुःख और दरिद्रता जादित महादुःखी होता है तथा परलोकमें अनेक पापों का उपार्जन कर नरक और तिर्यंच गतिके अनेक दुखोंको भोगता है ।।६०|| जिसने तपरूपी आभषण छोड़ दिया है और जो पापरूपी मैलमें सदा आसक्त रहता है उसको मिलनेवाले नरक आदिके दुःखोंको हम लोग कह भी नहीं सकते हैं ॥६१।। जो राग द्वेषरूपी रोगोंके कारण तपश्चरण नहीं करता उसे पन्द्रह पन्द्रह दिन महीने महीने भरके लंघन करने पड़ते हैं अथवा और भी ऐसे हो अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं ॥६२।। तपश्चरणके विना यह मनुष्य पशु ही है इसमें कोई सन्देह ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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