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________________ ३६० भावकाचार-संबह तस्मान्न प्रोषधस्त्याज्यस्तैरष्टम्यां च गहान्वितैः । धर्मार्थकाममोक्षादिप्रदः प्राणात्यये क्वचित् ॥३८ इति मत्वा सदा सारमुपवासचतुष्टयम् । मासमध्ये कुरु त्वं हि धर्माय त्यज काम्या ॥३९ कायसेवां प्रकुर्वन्ति शठाः सर्वदिनेषु ये। उपवासादिकं त्यक्त्वा मज्जन्ति श्वभ्रसागरे ॥४० अष्टम्यादिदिने सारे रमन्ते रामया सहः । तस्या अमेध्यमध्ये ते कृमियोनि भजन्त्यघात् ।।४१ चतुर्दश्यादिकं पर्वव्रतं कुर्वन्ति ये न बैं। दरिद्रत्वं च क्लीबत्वं ते भजन्ति भवे भवे ॥४२ इति मत्वा बुधैः कार्य तपोऽनशनगोचरम् । पर्वादिषु विशिष्टेषु स्वमुक्तिश्रीवशीकरम् ॥४३ तपो मुक्तिपुरों गन्तुं पाथेयं स्याद्धि पुश्कलम् । मुक्तिरामावशीक तपो मन्त्री गिनां भवेत् ।।४८ तपः समोहितस्यैव दातुं कल्पद्रुमो भवेत् । तपश्चिन्तामणि यश्चिन्तितार्थप्रदो ङ्गिनाम् ॥४५ तपः कामदुधाप्युक्ता कामितार्थप्रदा बुधः । तपोनिधिश्च रत्नादि सर्ववस्त्वाकरो भवेत् ।।४६ तपः आकर्षणे मन्त्रं सर्वलोकस्थितश्रियाः । तपः औषधमेव स्याज्जन्मज्वरविघातने ॥४७ तपः कर्ममहारण्यदहने ज्वलनोपमम् । तपः पापमलापाये जलं प्रोक्तं गणाधिपैः ॥४८ तपो वज्र जिनरुक्तं दुरिताद्रिविखण्डने । तपोऽशुभमहाशत्रु हन्तुं तीक्ष्णायुधोपमम् ॥४९ तपः सिंहो भवेद्दक्षो मत्तमातङ्गघातने । मनोमर्कटसंरोधे तपः पाशोऽङ्गिनां मतः ॥५० इसलिये गृहस्थो पुरुषोंको प्राण नष्ट होनेपर भी अष्टमीके दिनका प्रोषधोपवास कभी नहीं छोड़ना चाहिये क्योंकि अष्टमीके दिन किया हुआ उपवास धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है ॥३८॥ इसलिये हे भव्य ! तू विना किसी इच्छाके केवल धर्मपालन करनेके लिये प्रत्येक महीने में सारभूत चार (दो अष्टमीके दो चतुर्दशीके) उपवास कर ॥३९॥ जो मूर्ख पर्वके दिनोंमें उपवासको छोड़कर कामसेवन करते हैं वे नरकरूपी महासागरमें अवश्य डूबते हैं ॥४०॥ जो सारभूत अष्टमीके दिन स्त्रीसेवन करते हैं वे उस पापकर्मके उदयसे मरकर विष्टाके कीड़ा होते हैं ॥४१॥ जो चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें व्रत नहीं करते वे भव-भवमें दरिद्री और नपुंसक होते हैं ॥४२॥ यही समझकर बुद्धिमानोंको पर्व आदिके विशेष दिनोंमें उपवास नामका तपश्चरण अवश्य करना चाहिये क्योंकि यह पर्वके दिनोंमें किया हुआ उपवास स्वर्ग मोक्षरूपी लक्ष्मीको वश करनेवाला है ।।४३।। यह उपवासजन्य तपश्चरण मुक्तिरूपी नगरमें जानेके लिये भरपूर पाथेय (मार्गमें खाने योग्य पदार्थ) है तथा यही उपवासरूपी तपश्चरण मुक्तिरूपी स्त्रीको वश करनेके लिये परम मन्त्र है ।।४४।। यह उपवासरूपी तपश्चरण इच्छानुसार पदार्थोंके देने के लिये कल्पवृक्ष है और यही तपश्चरण मन में सोचे हुए पदार्थोंको देनेके लिये चिन्तामणि रत्नके समान है ॥४५॥ विद्वान् लोग इसी तपश्चरणको रत्न आदि समस्त पदार्थोंकी. खानिभूत निधि कहते हैं ॥४६।। तीनों लोकोंमें रहनेवाली लक्ष्मीको आकर्षण करने-अपनी ओर खींचनेके लिये यही उपवासरूपी तप परम मन्त्र है तथा जन्ममरणरूपी ज्वरको दूर करनेके लिये यही उपवास परम औषध है ॥४७॥ कर्मरूपी महा वनको जला देनेके लिये यही तपश्चरण अग्निके समान है और पापरूपी मलको धोनेके लिये गणधर देवोंने इसी उपवासरूपी तपश्चरणको जलके समान बतलाया है ॥४८॥ पापरूपी पर्वतको चूर चूर करनेके लिये भगवान् जिनेन्द्रदेवने इसी तपको वज्र बतलाया है और यही तपश्चरण अशुभरूपी महा शत्रुओंको नष्ट करनेके लिये तीक्ष्ण शस्त्रोंके समान है ।।४९।। इन्द्रियरूपी मदोन्मत्त हाथीको मारनेके लिये यह तपश्चरण सिंहके समान है और मनरूपी बन्दरको रोकने वा वश करनेके लिये यही तपश्चरण जालके समान माना जाता है ॥५०॥ तपश्चरणसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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