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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार एवं यः प्रोषधं कुर्यात्सर्वहिंसादिवजितम् । क्षिपेद्वैराग्यमापन्नः एनः संख्याविजितम् ॥२५ उपवासं विधत्ते यः कुर्यात्पापं गृहादिजम् । गजस्नान इव खेवस्तस्य पापक्षयो न च ॥२६ तस्माद्धीरैर्न कर्तव्य उपवासदिके शुभे । गृहपापादिकारम्भः प्राणान्तेऽपि कदाचन ॥२७ यः पर्वण्युपवासं हि विधत्ते भावपूर्वकम् । नाकराज्यं च सम्प्राप्य मुक्तिनारों वरिष्यति ॥२८ प्रोषधं नियमेनैव चतुर्दश्यां करोति यः । चतुर्दशगुणस्थानान्यतीत्य मुक्तिमाप्नुयात् ॥२९ चतुर्दश्या समं पर्व नास्ति कालत्रये वरम् । धर्मयोग्यं महापूतमुपवासादिगोचरम् ॥३० प्रोषधं यच्चतुर्दश्यामेकचित्तेन सम्भजेत् । प्राप्य षोडशकं नाकं व्रजेन्मुक्तिवराङ्गनाम् ॥३१ द्विसप्ताद्युपवासेन पापं हत्वा गृहादिजम् । चतुर्दशादिसञ्जातं महापुण्यं लभेत ना ॥३२ प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यश्चतुर्दश्यां हि घीधनैः । उपवासोऽतिधर्मार्थकाममोक्षफलप्रदः ॥३३ अष्टम्यामुपवासं हि ये कुर्वन्ति नरोत्तमाः। हत्वा कर्माष्टकं तेऽपि यान्ति मुक्ति सुदृष्टयः ॥३४ अष्टमीदिवसे सारे यः कुर्यात्प्रोषधं वरम् । इन्द्रराज्यपदं प्राप्य क्रमाद्याति स निर्वृतिम् ॥३५ नियमेनोपवासं यस्त्वष्टम्यां कुरुते पुमान् । स्वाष्टकर्माणि हत्वा स भजेत्सारं गुणाष्टकम् ॥३६ सदाष्टम्युपवासस्य धर्मेण गृहनायकाः । अष्टादिविनजं पापं हत्वा पुण्यं भजन्ति वै ॥३७ दिन स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये समस्त पापोंका त्याग कर मुनिके समान रह ॥२४। इस प्रकार जो बुद्धिमान् वैराग्य धारण कर तथा हिंसा आदि समस्त पापोंका त्याग कर प्रोषधोपवास करते हैं वे असंख्यात पापोंको नष्ट करते हैं ।।२५।। जो उपवास धारण करके भी गृहस्थीके आरम्भ व्यापार आदिके समस्त पाप करते हैं उनका वह उपवास हाथीके स्नानके समान व्यर्थ है-उस उपवाससे केवल खेद ही होता है, पाप नष्ट नहीं होते ॥२६।। इसलिये धीरवीर पुरुषोंको उपवासके शुभ दिनमें प्राण नष्ट होनेपर भी घर सम्बन्धी आरम्भादिक पाप कभी नहीं करना चाहिए ॥२७॥ जो पुरुष पर्वके दिनोंमें भावपूर्वक उपवास धारण करते हैं वे स्वर्गके राज्यका उपभोग करके अन्तमें अवश्य मुक्ति स्त्रीके स्वामी होते हैं ।।२८।। जो चतुर्दशीके दिन नियमपूर्वक प्रोषधोपवास करता है वह चोदह गुणस्थानोंको पार कर मोक्षमें जा विराजमान होता है ॥२९॥ चतुर्दशीके समान धर्म करने योग्य महा पवित्र और उपवास प्रोषधोपवास आदि करने योग्य उत्तम पर्व तीनों कालोंमें भी अन्य कोई नहीं हो सकता ॥३०॥ जो चतुर्दशीके दिन चित्त लगाकर प्रोषधोपवास करता है वह सोलहवें स्वर्गके सुख भोगकर मुक्तिरूपी सर्वोत्तम स्त्रीके समीप जा पहुंचता है ॥३१॥ जो प्रत्येक चतुर्दशीके दिन घर सम्बन्धी समस्त पापोंको छोड़कर उपवास करता है वह चतुर्दशीको उपवास करनेसे महा पुण्य उपार्जन करता है ॥३२॥ बुद्धिमानोंको चतुर्दशीके दिन धारण किया हुआ उपवास प्राण नष्ट होनेपर भी नहीं छोड़ना चाहिये, क्योंकि चतुर्दशीके दिन धारण किया हुआ उपवास धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को देनेवाला है ॥३३॥ जो सम्यग्दृष्टि उत्तम पुरुष अष्टमीके दिन उपवास करते हैं वे आठों कर्मोंको नष्ट कर मोक्षमें जा विराजमान होते हैं ॥३४|| अष्टमीका दिन सबमें सारभत है। उस दिन जो उत्तम प्रोषधोपवास करता है वह इन्द्रका साम्राज्य पाकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करता है ।।३५।। जो पुण्य प्राप्त करनेके लिये अष्टमीके दिन नियमपूर्वक उपवास करता है वह अपने आठों कर्मोको नष्ट कर सम्यक्त्वज्ञान दर्शन आदि सिद्धोंके सर्वोत्तम आठों गुणोंको धारण करता है ॥३६।। जो गृहस्थ अष्टमीके, दिन उपवास धारण कर धर्म पालन करते हैं वे इस दिनके समस्त पापोंको नष्ट कर महा पुण्य उपार्जन करते हैं ॥३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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