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श्रावकाचार-संबह गृहव्यापारजां हिंसामसत्यं विकथादिकम् । स्तेयमबाह्यसेवां च द्रव्यादिकपरिग्रहम् ॥१३ अशुभं सर्वसङ्कल्पं वचो हिंसादिकारणम् । गमनाविप्रयुक्तं न कार्य वस्तु ष पापदम् ॥१४ मनोवाक्काययोगेन त्यक्त्वा सर्वाशुभं बुधाः । उपवासदिने घोराः तिष्ठन्ति मुनयो यथा ॥१५ आदाय प्रोषधं धीरस्तिष्ठेत्साधुसमाश्रये । जिनागारेऽथवा शून्यगेहे गिरिगुहादिषु ॥१६ श्रुतामृतं पिबेत्तत्र धर्म-संवेगकारणम् । एकचित्तेन तीर्थेशमुखोत्पन्नं शुभं सुधीः ॥१७ ज्ञानवान् धर्मसंयुक्तः स्वयं धर्मामृतं पिबेत् । अन्येषां पाययेद्वापि प्रोपकाराय स्वान्ययोः ॥१८ अनुप्रेक्षाश्च षद्रव्यसप्ततत्त्वादिकान् सुधीः । धर्मध्यानं चतुर्भेदं स्वागमं वा विचिन्तयेत् ॥१९ संसारदेहभोगेषु पापश्वभ्रप्रदेषु वै । वैराग्यं भावयेद्धीमान् नाकमुक्तिगृहाङ्गणम् ॥२० अनन्तगुणसन्दोहं केवलज्ञानभास्करम् । मुक्तिबीजं जिनेयेयं लोकालोकप्रकाशकम् ॥२१ असंख्यमहिमायुक्तं परमात्मानमञ्जसा । भजेद्धीमान् पुमान् धीरो मनः कृत्वा सुनिश्चलम् ॥२२ एकचितेन वा धीमान् जपेत्पञ्चपदानि वै । अहंदादिगुरूणां हि नामोत्पन्नानि निश्चितम् ॥२३ किमत्र बहुनोक्तेन त्यक्त्वा सावद्यमञ्जसा । यतिवत्तिष्ठ भो मित्र प्रोषधे स्वर्गमुक्तये ॥२४
अञ्जन, तांबूल, अङ्ग उपांगोंके विकार और शय्या आदि सबका त्याग कर देना चाहिये ॥११-१२॥ घरके व्यापारसे होनेवाली हिंसा, विकथा आदि असत्य, चोरी, अब्रह्म, द्रव्यपरिग्रह आदि सब पापोंका त्याग कर देना चाहिये। मनके सब अशुभ संकल्पोंका, हिंसा आदि पापोंके करनेवाले वचनोंका, आने जाने आदि क्रियाओंका तथा ओर भी पाप उत्पन्न करनेवाले कामोंका सबका त्याग कर देना चाहिये ।।१३-१४॥ धीरवीर बुद्धिमानोंको उपवासके दिन मन, वचन, काय तीनों योगसे समस्त अशुभोंका त्याग कर मुनियोंके समान विराजमान रहना चाहिये ॥१५।। धीरवीर पुरुषोंको उपवास ग्रहण कर मुनियोंके आश्रममें (मुनियोंके समुदायमें वा उनके रहने योग्य स्थानोंमें) जिनालयमें, किसी सूने मकानमें अथवा पर्वतकी गुफा आदिमें रहना चाहिये ॥१६॥ बुद्धिमानोंको ऐसे स्थानोंमें रहकर चित्त लगाकर धर्म और संवेगको बढ़ानेवाले तथा श्री तीर्थकरके मुखसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानरूपी शुभ अमृतका पान करना चाहिये अर्थात् शास्त्र श्रवण करना चाहिये ॥१७॥ यदि प्रोषधोपवास करनेवाला ज्ञानवान् और धर्मात्मा हो तो उसे स्वयं धर्मरूपी अमृतका पान करना चाहिये और अपना वा दूसरोंका उपकार करनेके लिये अन्य भव्य जीवोंको उसका पान कराना चाहिये अर्थात् उसे स्वयं शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए और दूसरोंको सुनाना चाहिए ॥१८|इसी प्रकार बारह अनुप्रेक्षाएं, छह द्रव्य, सात तत्त्व, चारों प्रकारका धर्मध्यान और शास्त्रोंका मनन वा चितवन भी उन बुद्धिमानोंको करना चाहिए ।।१९।। इसी प्रकार बुद्धिमानोंको पाप और नरक देनेवाले संसार, शरीर और भोगोंसे वैराग्य भावनाओंका चितवन करना चाहिए, क्योकि यह वैराग्य ही स्वर्ग और मोक्षरूपी घरका आँगन है ॥२०॥ धीरवीर बुद्धिमान् मनुष्योंको केवलज्ञानरूपी सूर्यका चितवन करना चाहिए, क्योंकि यह केवलज्ञानरूपी सूर्य लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाला है, अनन्तगुणोंका समुद्र है, मोक्षका कारण है और जिनेन्द्रदेव भी इसका घ्यान करते हैं। इसी प्रकार अनन्त महिमाओंसे सुशोभित परमात्माका ध्यान भी उनको करना चाहिए ॥२६-२२॥ इसी प्रकार उस दिन बुद्धिमानोंको चित्त लगाकर अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु इन पाँचों परमेष्ठियोंके वाचक पंच नमस्कार मन्त्रका जप और ध्यान करना चाहिए ॥२३॥ हे मित्र ! बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? थोड़ेसे में इतना समझ ले, कि प्रोषधोपवासके
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