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________________ ३५६ यांवकाचार-संग्रह शमदमयमजातं मुक्तिकान्तासुनाथ, सुरगतिसुखगेहं तीर्थनाथैः सुसेव्यम् । भज हि सकलद्धेर्बोजभूतं गुणाढचं, दुरिततिमिरसूर्य मित्र सामायिकं वै ॥१९३ दुरितवनकुठारं चित्तमातङ्गसिंह, विषयसफरजालं कर्मकक्षानलं भोः । दमशमयमगेहं धर्मशुक्लादिहेतुं, भज विगतविकारं सारसामायिकं त्वम् ॥१९४ प्राप्ता ये मुनयः श्रुतार्णवधरा ग्रैवेयकं चाग्रिम तेऽप्याराध्य सुधर्मदं सुखकरं सामायिक केवलम् । प्राभव्याः शिवसौख्यसारमपि ये रत्नत्रयालङ्कृताः तस्मात्त्वं बुधसारमेकमसमं सामायिक भो भज ॥१९५ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे देशावकाशिकसामायिकप्ररूपको नामाष्टदशमः परिच्छेदः ॥१८॥ इसलिये हे भव्य ! तू मोक्ष-सुख प्राप्त करनेके लिये इस कायोत्सर्गको धारण कर ।।१९२।। हे मित्र! यह सामायिक शम (परिणामोंका शान्त होना), दम (इन्द्रियोंको दमन करना) और यम (यम नियमरूपसे त्याग करना) से उत्पन्न होता है, मुक्ति रूपी स्त्रीका स्वामी है, स्वर्गके सुखोंका पर है, तीर्थकर परमदेव भी इसकी सेवा करते हैं, यह समस्त ऋद्धियोंका बीजभूत या कारण है, अनन्तगुणोंसे भरपूर है और पापरूप अन्धकारको नाश करने के लिये सूर्य है । हे मित्र ! ऐसे सामायिकको तू प्रतिदिन धारण कर ॥१९३।। यह सामायिक पापरूपी वनको उखाड़ने के लिये कूठार या कुल्हाड़ी है, मनरूपी हाथीको वश करनेके लिये सिंह है, विपयरूपी मछलियोंको पकड़नेके लिये जाल है, कर्मरूपी ईंधनको जलानेके लिये अग्नि है, दम शम यमका घर है, धर्मध्यान और शुक्लध्यानका कारण है तथा समस्त विकारोंसे रहित है और सबमें सारभूत है । हे मित्र ! ऐसे सामायिकको तू अवश्य धारण कर ॥१९४॥ जो रत्नत्रयसे सुशोभित मुनिराज श्रुतज्ञानरूपी महासागरके पारगामी हुए हैं, अथवा उत्तम ग्रेवेयकमें जा विराजमान हुए हैं वे केवल इस सामायिककी आराधनासे ही हुए हैं। यह सामायिक श्रेष्ठ धर्मको देनेवाला सुखको खानि है, मोक्षसुखका सारभूत है, विद्वानोंके लिये सारभूत है, इसके समान संसारमें अन्य कोई पदार्थ नहीं है, यह अद्वितीय है इसलिये हे भव्य ! ऐसे सामायिकको तू अवश्य धारण कर ॥१९५॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्तिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें देशावकाशिक और सामायिक व्रतका निरूपण करनेवाला यह अठारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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