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________________ प्रश्नोत्तरश्रविकांगारे एते दोषाः परित्याज्या गृहस्बैश्च मुनीश्वरः । व्युत्सर्गसंयुतैर्षीरेमलदाः कर्मशान्तये ॥१८० चतुरङ्गुल्यन्तरितो समपादो विषाय यः । व्युत्सर्ग कुरते तस्यैको दोषोऽपि न जायते ॥१८१ चञ्चलत्वं परित्यज काष्ठवनिश्चलो यतिः । एकाप्रमनसा युक्तदेहादिविक्रिया सदा ॥१८२ सर्वाङ्गस्पन्दनिर्मुक्तस्त्यक्तदोषं सुधीर्भजेत् । यो व्युत्सर्ग भजेत्सोऽपि स्वर्गमुक्तिसुखादिकम् ॥१८३ एकचित्तेन व्युत्सर्ग यः कुर्याद घटिकादयम् । अनेकजन्मजं पापं क्षिपेद् ज्ञानी स शुद्धधीः ॥१८४ ममत्वं देहतो नश्येत् कायोत्सर्गेण धीमताम् । निर्ममत्वं भवेन्तनं महाधर्मसुखाकरम् ॥१८५ न भूतं भुवने नृणां कायोत्सर्गसमं तपः । नाममोक्षगृहद्वारं नास्ति चाने भविष्यति ॥१८६ मन्ये तावेव पादौ यौ कायोत्सर्गान्वितौ दृढौ। पुंसां धर्मप्रदो धन्यौ धीरौ स्वर्मुक्तिदायकौ ॥१८७ कायोत्सर्ग विना पादौ हिंसाविपरिवतिनौ । ज्ञेयो व्यर्थो मनुष्याणां गमनादिकतत्परौ ॥१८८ येऽधमाः शक्तिमापन्नाः कायोत्सर्ग न कुर्वते । तेषां जन्म वृथा याति भृत्या इव कुमार्गगाः ॥१८९ कायोत्सर्ग समादाय जित्वा घोरपरीषहान् । ये गता मुक्तिसाम्राज्ये हैं धन्या विदुषां मताः १९० इति मत्वा विधातव्यः कायोत्सर्गो बुधोत्तमैः । स्वशक्ति प्रकटीकृत्य प्रत्यहं सत्सुखाकरः ॥१९१ सकलसुखनिधानं स्वर्गसोपानभूतं नरकगृहकपाटं दुःखदावाग्निमेघम्।। अतुलगुणसुखं वा धर्मवृक्षस्य बीजं भज शिवसुखहेतोस्त्वं हि व्युत्सर्गमेकम् ॥१९२ नामका दोष लगता है ॥१७९॥ कायोत्सर्ग करनेवाले धीर वीर श्रावकोंको व मुनियोंको कर्मोको शान्त करनेके लिये मल उत्पन्न करनेवाले इन दोषोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥१८०॥ जो चार अंगुलके अन्तरसे दोनों पैरोंको एक-सा रखकर कायोत्सर्ग करता है उसके कोई दोष नहीं लग सकता ॥१८१॥ जो बुद्धिमान् मुनि चंचलताको छोड़कर काष्ठके समान निश्चल होकर शरीरके समस्त विकारोंको छोड़कर अंग उपांगोंके हलन चलनको छोड़कर तथा समस्त दोषोंका त्यागकर एकाग्रचित्तसे कायोत्सर्ग करता है उसे स्वर्ग मोक्षके सुख अवश्य ही प्राप्त होते हैं ॥१८२-१८३।। जो शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाला ज्ञानी पुरुष दो घड़ी पर्यन्त एकाग्रचित्तसे कायोत्सर्ग करता है वह उस कायोत्सर्गसे अनेक जन्मके पापोंको नष्ट कर देता है ।।१८४॥ कायोत्सर्ग धारण करनेसे बुद्धिमानोंका शरीरसे ममत्व छूट जाता है तथा शरीरसे ममत्वका छूट जाना ही महा धर्म और सुखकी खानि है ।।१८५। इस संसारमें मनुष्योंको कायोत्सर्गके समान तपश्चरण न तो आजतक हुआ है और न आगे कभी हो सकता है । यह कायोत्सर्ग स्वर्ग और मोक्षरूपी घरका द्वार है ॥१८६।। मनुष्योंके जो पैर कायोत्सर्ग धारण कर दृढताके साथ खड़े हैं संसारमें उन्हींको पैर समझना चाहिये, वे ही पैर धन्य हैं, वे ही धीरवीर हैं, वे ही धर्म धारण करनेवाले हैं और वे ही पैर स्वर्ग मोक्ष देनेवाले हैं ।।१८७॥ जिन पैरोंसे कभी कायोत्सर्ग नहीं हुआ-जो केवल आने जाने में ही काम आते हैं और हिंसादिक पाप करते रहते हैं मनुष्योंके ऐसे पैरोंको सर्वथा व्यर्थ समझना चाहिये ॥१८८।। जो नीच समर्थ होकर भी कायोत्सर्ग नहीं करते हैं उनका जन्म कुमार्गगामी सेवकके समान व्यर्थ ही बीत जाता है ।।१८९।। जो कायोत्सर्ग धारण कर और घोर परीषहोंको जीतकर मोक्षके साम्राज्यमें जा विराजमान हुए हैं, संसारमें वे ही धन्य हैं और वे ही विद्वान् लोगोंके द्वारा माननीय वा पूज्य माने जाते हैं ॥१९०।। यही समझकर उत्तम बुद्धिमानोंको प्रतिदिन अपनी शक्तिको प्रगटकर मोक्षका श्रेष्ठ सुख देनेवाला यह कायोत्सर्ग करना चाहिये ॥१९१॥ यह कायोत्सर्ग समस्त सुखोंका निधि है, स्वर्गको सीढ़ी है, नरकरूपी घरको बन्द करनेके लिये किवाड़ है, दुःखरूपी दावानल अग्निके लिये मेघोंकी वर्षा है, निरुपम गुणोंकी खानि है और धर्मरूपी वृक्षका बीज है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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