SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ श्रावकाचार-संग्रह कायोत्सर्गान्वितो योऽपि पाश्वं पश्यति काकवत् । तस्य वायसदोषोऽत्र जायते नेत्रसम्भवः ॥१६६ यो दन्तकटकं सीसं कृत्वा व्युत्सर्गमाश्रयेत् । अश्ववत्खलिनाख्यं स श्रयेद्दोषं मलप्रदम् ॥१६७ ग्रीवां प्रसार्य यः कुर्यात् व्युत्सर्ग बलीवर्दवत् । युगदोषो भवेत्तस्य कायोत्सर्गस्य दोषदः ॥१६८ कृत्वा कपित्थवन्मुष्टि यो व्युत्सर्गेण तिष्ठति । व्रजेत्कपित्थदोषं स कायोत्सर्गमलप्रदम् ॥१६९ कायोत्सर्गान्वितो यस्तु प्रकम्पयति मस्तकम् । शिरःप्रकम्पितं दोषं श्रयेत्सोऽपि मलाविजम् ॥१७० व्युत्सर्गेण स्थितो योऽपि नासिकामुखसम्भवम् । विकारं कुरुते तस्य मूकदोषः प्रजायते ॥१७१ त्यक्त्वा देहादिसङ्गोऽयं विकारं कुरुते नरः । अङ्गल्यादिभवं दोषमङगुल्याख्यं लभेत सः ॥१७२ कायोत्सर्गेण युक्तो यो भ्रूविकारं करोति ना। भ्रदोषस्तस्य स्थाननं वा पादाङ्गुलिनर्तनात् ॥१७३ घूर्णमानो हि व्युत्सर्गे सुरापायीव तिष्ठति । दोषः स्याद्वारुणीपायो तस्य दोषविधायकः ॥१७४ आलोकनं दशदिशां त्यक्तदेहाः श्रयन्ति ये । नेत्रचञ्चलतस्तेऽत्र दृतदोषान् भजन्ति वै॥१७५ यो ग्रोवोन्नमनं कुर्यात्कायोत्सर्गान्वितो नरः । दोषं ग्रीवोन्नमनं स भजेद् ग्रीवादिसम्भवम् ॥१७६ कायोत्सर्गेण संयुक्तो धत्ते प्रणमनं पुमान् । दोषं प्रणमनं सोऽपि श्रयेन्मलविधायकम् ॥१७७ निष्ठीवनं करोत्युच्चैः यो वा खात्करणादिकम् । कायोत्सर्गसमायुक्तो दोषं निष्ठीवनं भजेत् ॥१७८ शरीरस्पर्शनं योऽत्र करोति स्वस्य कारणात् । कायोत्सर्गादिसंयुक्तो स्पर्शदोषं लभेत सः ॥१७९ उसके तनुदृष्टि नामका दोष लगता है ।।१६५।। जो कायोत्सर्ग में खड़ा होकर भी कोएके समान अपनी दोनों अगल बगलोंकी ओर देखता है उसके नेत्रोंसे उत्पन्न होनेवाला वह वायस नामका दोष कहलाता है॥१६६।। जिस प्रकार लगामके दुःखसे दुःखो हुआ घोड़ा दाँत कटकटाकर मस्तक हिलाता है उसी प्रकार जो कायोत्सर्गके समय दांतोंको कटकटाता हुआ मस्तक हिलाता है उसके मल उत्पन्न करनेवाला खलीन नामका दोष लगता है ॥१६७।। जिस प्रकार जुआके दुःखसे दुःखी हुआ बैल गर्दन फैलाता है उसी प्रकार जो गर्दनको फैलाकर सामायिक करता है उसके कायोत्सर्गमें दोष उत्पन्न करनेवाला युग नामका दोष होता है ॥१६८॥ जो कपित्थ या कैथके समान अपनी मुट्ठियोंको बांधकर कायोत्सर्गके लिये खड़ा होता है उसके कपित्थ नामका दोष लगता है ॥१६९।। जो कायोत्सर्गके समय मस्तकको कपाता है वह मलको पैदा करनेवाला शिरः प्रकम्पित दोष है ॥१७०।। जो कायोत्सर्ग में खड़ा होकर भी गूंगेके समान मुंह और नाकके विकार उत्पन्न करता रहता है उसके मूक नामका दोष लगता है ।।१७१।। जो शरीरसे ममत्व छोड़कर भी उँगली आदिसे विकार उत्पन्न करता रहता है (अथवा उँगलियोंसे गिनती करता रहता है) उसके अंगुली नामका दोष लगता है ॥१७२।। जो कायोत्सर्ग करता हुआ भी भौंह चलाता रहता है अथवा पैरकी उँगलियोंको नचाता रहता है उसके भ्रविकार नामका दोष होता है ॥१७३।। जो कायोत्सर्म करता हुआ भी शराब पीनेवालेके समान घूमता (हिलता) रहता है उसके कायोत्सर्गमें दोष लगानेवाला वारुणीपायी (उन्मत्त) नामका दोष लगता है ।।१७४॥ जो शरीरसे ममत्व छोड़कर भी दशों दिशाओंकी ओर देखते रहते हैं उनके नेत्र चंचल होनेके कारण दिशावलोकन नामका दोष लगता है ॥१७५।। जो कायोत्सर्ग करता हुआ भी अपनी गर्दनको बहुत उँची कर लेता है उसकी ग्रीवा वा गर्दनसे उत्पन्न होनेवाला ग्रीवोन्नमन नामका दोष होता है ॥१७६।। जो कायोत्सर्ग करता हुआ भी अपनी गर्दनको नीची कर लेता है उसके प्रणमन नामका दोष लगता है ।।१७७।। जो कायोत्सर्ग करता हुआ भी यूकता रहता है उसके निष्ठीवन नामका दोष लगता है ।।१७८॥ जो कायोत्सर्ग करता हुआ भी किसी कारणसे अपने शरीरका स्पर्श करता रहता है उसके स्पर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy