SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार लम्बोदरो वपुर्दृष्टिर्वायसस्खलिनो युगः । कपित्थाख्यो भवेद्दोषः शिरः प्रकम्पितो भवेत् ॥१५५ मू कितोऽङ्गुलिदोषश्च भ्रूविकारो हि सम्भवेत् । तथाच वारुणोपायी दिशामालोकनाभिधाः ॥१५६ ग्रीवोमनमेव प्रणमनः स्यान्निष्टोवनः । स्वाङ्गमर्षो बुधैस्त्याज्या अमी दोषा मलप्रदाः ॥१५७ उत्क्षिप्य चैकपादं यो चाविन्यस्येह तिष्ठति । कार्योत्सर्गे भवेत्तस्य घोटकाख्यो मलोऽश्ववत् ॥१५८ अङ्गानि चालयन् योऽपि व्युत्सगं कुरुते यमी । लतेव संश्रयेत्सोऽपि लतादोषं प्रचञ्चलः ॥ १५९ स्तम्भमाश्रित्य व्युत्सर्ग यो विधत्ते हि संयतः । स्तम्भदोषं भजेत्सोऽपि स्वशून्यहृदयोऽथवा ॥१६० कायोत्सर्ग विधत्ते यः कुडयमाश्रित्य श्रावकः । अन्यद्वाश्रित्य तस्यैव कुड्यदोषः प्रजायते ॥ १६१ पीठिकादिकमारुह्य यो व्युत्सगं करोति च । मस्तकादूर्ध्वमाश्रित्य मालादोषं भजेत्स ना ॥१६२ जङ्घाभ्यां शवरवधूरिव निष्पीड्य तिष्ठति । यो जघनं व्युत्सर्गे शवरिदोषं लभेत सः ॥१६३ व्युत्सर्गस्थित एवोनोन्नमनं कुर्याद यो बुधः । बाह्याधो नमनं प्रायः स लम्बोदरदोषभाक् ॥१६४ नयनाम्यां शरीरं यः स्वस्य पश्यति रागवम् । कायोत्सर्गस्थितो दोषं तनुदृष्टि लभेत सः ।। १६५ ३५३ अंगुलि, भ्रूविकार, वारुणीपायी, दिशावालोकन, ग्रीवोन्नमन, प्रणमन, निष्ठीवन, स्वांगस्पर्श ये कायोत्सर्ग के दोष' कहलाते हैं अतः बुद्धिमानों को इनका त्याग कर देना चाहिये ।। १५४-१५७॥ जिस प्रकार अच्छा घोड़ा एक पैर ऊँचा करके खड़ा होता है उसी प्रकार जो कायोत्सर्ग करते समय एक पैर को ऊँचा कर केवल एक पैरसे पृथ्वीको स्पर्श करता हुआ खड़ा होता है उसके घोटक नामका दोष होता है || १५८ ॥ जो संयमी लताके समान अंग उपांगों को कँपाता हुआ कायोत्सर्ग करता है उसके लता नामका दोष लगता है || १५९ || जो संयमी किसी खम्भेका सहारा लेकर कायोत्सर्ग करता है अथवा जो अपने हृदयको शून्य बनाकर (आत्मा चितवन किये विना) कायोत्सर्ग करता है उसके स्तम्भ नामका दोष लगता है || १६० || जो श्रावक किसी दीवालका अथवा अन्य किसी पदार्थका सहारा लेकर कायोत्सर्ग करता है उसके कुड्य नामका दोष लगता है || १६१ ॥ जो किसी वेदी, पटा आदिपर खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है उसके पट्टक नामका दोष लगता है । जो मस्तक से ऊँचे स्थानपर माला वा रस्सी बांधकर उसका सहारा लेकर कायोत्सर्ग के लिये खड़ा होता है उसके माला नामका दोष लगता है ॥ १६२ || जो भोलिनियोंके समान जघनस्थलको (गुह्य प्रदेशको ) दोनों जंघाओंसे दबाकर (अथवा हाथसे ढककर ) कायोत्सर्गके लिये खड़ा होता है उसके शवरी नामका दोष होता है || १६३|| जो कायोत्सर्ग में खड़ा होकर भी मस्तकको ऊँचा करता है अथवा नीचा करता है उसके लम्बोदर नामका दोष होता है || १६४ || जो कायोत्सर्ग में खड़ा होकर भी अत्यन्त राग उत्पन्न करनेवाले अपने शरीरको अपने दोनों नेत्रोंकी दृष्टिसे देखता रहता है १. बाकीके दोष इस प्रकार हैं। पट्टक — इसका स्वरूप ६२ वें श्लोकमें लिखा है । शृङ्खलित — जो अपने पैरोंको सकिलसे बंधे हुएके समान करके कायोत्सर्ग करे | उत्तीरत - मस्तकको ऊंचाकर कायोत्सर्ग करना । स्तनोन्नति — दूध पिलाने वालीके समान छातीको ऊंचा उठाकर कायोत्सर्ग करना । न्यूनत्व - मात्रा आदि छोड़कर कायोत्सर्गका पाठ पढ़ना । मायाप्रायस्थितिश्चित्र – दूसरोंको ठगनेवाली और अत्यन्त आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली शरीरकी स्थिति बनाना । वयोपेक्षाविवर्जन - अपना बुढ़ापा समझकर कायोत्सर्ग का छोड़ देना । व्याक्षेपासक्तचितत्व - वित्तको इधर-उधर भटकाते हुए कायोत्सर्ग करना । कालापेक्षाव्यतिक्रमसमय देखकर कायोत्सर्गका कुछ अंश छोड़ देना । लोभाकुलत्व - लोभके कारण कुछ अंश छोड़ देना । मूढत्वकर्तव्य अकर्तव्यका विचार न करना । पापकर्म कसता - हिंसादिकके कामोंमें अत्यन्त उत्साह होना । ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy