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________________ १५२ श्रावकाचार-संग्रह आलोचनादिकस्यातिकालेनापि विवर्तनम् । कृत्वा सामायिक वध्याल्लभेतोत्तरचूलिकम् ॥१४४ मुकवन्मुखमध्ये वा हुङ्कारागुलिसंज्ञया। युक्तो यः कुरुते तद्धि मूकदोषं लभेत सः ॥१४५ स्वशम्वेन परेपां यः सच्छन्दमभिभूय वै। बृहद्गलेन-तं दध्याद् ददुरं दोषमाप्नुयात् ॥१४६ स्थित्वैकस्मिन् प्रदेशे यः सर्वेषां वन्दनां भजेत् । श्रयेत्सुललितं दोषं पञ्चमादिस्वरेण वा ॥१४७ एतैर्मुक्तं हि द्वात्रिंशद्दोषैः सामायिकं च यः । करोति निर्जरां पापकर्मणां स भजेत्पराम् ॥१४८ त्यक्त्वाशुभं महापुण्यं स्वर्गमुक्तिवशीकरम् । सर्वसौख्याकरं सारं संसाराम्बुधितारकम् ॥१४९ अपरित्यज्य तान् दोषान् यः कुर्याद्वन्दनादिकम् । कर्मक्षयो भवेन्नैव तस्य क्लेशो हि केवलम् ॥१५० कायोत्सर्गोऽपि कर्तव्यो द्वात्रिंशद्दोषजितः । बुधैः कायममत्वादित्यजनार्थ सुधर्मदः ॥१५१ दुःखं यथा समायाति पादसञ्जातपीडया। तथा कर्माणि नश्यन्ति कायोत्सर्गस्थितस्य वै ॥१५२ कायोत्सर्गभवान् दोषान् मे गणेश प्ररूपय। भोः श्रावक प्रवक्ष्येऽहं तान् दोषान् शृणु ते स्फुटम् ॥१५३ घोटकश्च लतादोषः स्तम्भः कुडयोऽपि सम्भवेत् । मालदोषः शवरादिवधूः स्यानियल्पे ध्रुवम् ॥१५४ से थोड़े ही समयमें कर लेता है और आलोचना आदि उसकी चूलिकाको (अन्तिम क्रियाको) बड़ी देरसे करता है इस प्रकार जो सामायिक करता है उसके उत्तर चूलिका नामका दोष लगता है ॥१४३-१४४|| जो गूगेके समान मुखके भीतर ही भीतर सामायिक वा वन्दना करता है अथवा उंगलीके इशारे वा हुँकार आदि करता हुआ सामायिक आदि क्रियाओंको करता है उसके मूक नामका दोष लगता है ॥१४५।। जो अपने जोर-जोरके शब्दोंसे दूसरोंके अच्छे शब्दोंको भी दबाकर सामायिक आदि क्रियाओंको करता है उसके दुर्दर नामका दोष लगता है ।।१४६।। जो एक स्थान पर बैठकर ही सबकी वन्दना करता है अथवा जो पंचम स्वर आदिसे गा-गाकर वन्दना करता है उसके सुललित नामका दोष लगता है ।।१४७।। जो इन बत्तीस दोषोंसे रहित होकर सामायिक करता है उसके पापकर्मोकी सबसे अधिक निर्जरा होती है ॥१४८।। जो इन दोषोंको छोड़कर सामायिक करता है उसके स्वर्ग मोक्षको वश करनेवाला समस्त सुखोंकी खानि सारभूत और संसाररूपी महासागरसे पार कर देनेवाला शुभरूप महा पुण्य प्राप्त होता है ॥१४९।। जो इन दोषोंका विना त्याग किये ही सामायिक वा वन्दना आदि क्रियाओंको करता है उसके कर्मोका नाश कभी नहीं हो सकता उसका सामायिक आदि करना केवल शरीरको दुःख पहुँचाना है ॥१५०॥ इसी प्रकार बुद्धिमानोंको शरीरसे ममत्वका त्याग करनेके लिने श्रेष्ठ धर्मको प्रगट करनेवाला कायोत्सर्ग भी बत्तीस दोषोंसे रहित होकर ही करना चाहिए, अर्थात् कायोत्सर्गके भी बत्तीस दोषोंका त्याग कर देना चाहिए ॥१५१।। जिस प्रकार पैरमें उत्पन्न हुई पोड़ासे दुःख आ जाता है उसी प्रकार कायोत्सर्ग करनेवाले मनुष्यके अवश्य ही कर्म नष्ट हो जाते हैं ।।१५२।। प्रश्न-हे प्रभो ! कृपाकर मेरे लिये कायोत्सर्गके दोषोंका निरूपण कीजिये। उत्तर-हे श्रावकोत्तम ! सुन, अब मैं कायोत्सर्गके दोषोंको कहता हूँ ॥१५३।। घोटक, लता, स्तम्भ', कुड्य, माल शवर, लम्बोदर, तनुदृष्टि, वायस, खलित, युग, कपित्थ, शिरःप्रकंपन, मूकित, १. इसमें स्तम्भ और कुडप अलग-अलग लिखे हैं परन्तु अनगारधर्मामृतमें दोनों एक स्तम्भमें ही शामिल कर लिये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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