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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार परेषां यो भयं कुर्वन्नाचार्यातिजितः । नित्यकर्म विधत्ते स जितं दोषमाप्नुयात् ॥१३२ यो मौनं हि परित्यज्य वक्ति सामयिके स्थितः । वचनं जायते तस्य शब्ददोषोऽशुभप्रदः ॥१३३ कृत्वा परिभवं योऽपि नाचार्यादिसुयोगिनाम् । वचनेन विधत्ते तद्दोषं हेलितमाप्नुयात् ॥१३४ शरीरस्य त्रिभङ्ग यो नाभे रेखां त्रयं हि वा । कृत्वा करोति सत्कर्म श्रयेत्त्रिवलितं स ना ॥१३५ यः कुर्वन् स्वशिरस्पर्श हस्ताभ्यां विदधाति तत् । भूत्वा सङ्कुचितो वा हि स दोषं कुञ्चितं भजेत् ॥१३६ आचार्यादिगणैर्दष्टः सत्कर्म कुरुते हि यः । अन्यथा स्वेच्छया दृष्टं श्रयेद्वा दिग्विलोकनात् ॥१३७ आचार्यादिषु प्रच्छन्नं कायं वाऽप्रतिलेख्य यः। अनेकाग्रो विधत्ते तत्सोऽदृष्टं दोषमाप्नुयात् ॥१३८ सङ्घस्य रञ्जनार्थ यस्तस्माद्भक्त्यादिवाञ्छया । वन्दनां विधदे तस्य स्यात्सङ्घकरमोचनम् ॥१३९ आवश्यकं विधत्ते यः प्राप्योपकरणादिकम् । नान्यथा जायते तस्यालब्धदोषो मदप्रदः ॥१४० विदध्याद्यः षटकर्मोपकरणादिकवाञ्छया। लोभाविष्टो भजेहोषं सोऽत्रानालब्धसंज्ञकम् ॥१४१ कालव्यञ्जनग्रन्थार्थहीनमावश्यकं हि यः । करोति जायते तस्य हीनदोषोऽशुभप्रदः ॥१४२ वन्दनां स्तोककालेन निर्वत्यं वेगतो ध्र वम् । वन्दना चूलिकायाश्च किञ्चिदुद्धरतिस्म यः ॥१४३ है-विना क्षमा करे कराये योंही सामायिक वा वन्दना करता है उसके प्रदुष्ट नामका दोष लगता है ॥१३१।। जो अन्य शैक्ष्य आदिकोंको उँगलीसे तर्जनाकर भय उत्पन्न कर अथवा आचार्य वा गणसे तजित होकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके तजित नामका दोष लगता है ॥१३२॥ जो सामायिक करता हुआ भी मौन छोड़कर बातें करता है उसके पाप बढ़ानेवाला शब्द नामका दोष लगता है ॥१३३।। जो आचार्य आदि अन्य मुनियोंका तिरस्कार कर वचनसे उनका उपहासकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके हेलित नामका दोष लगता है ॥१३४|| जो कमर मोड़कर, गर्दन टेढ़ीकर वा छाती नवाकर अथवा भोह चलाकर अथवा ललाट पर तीन रेखा चढ़ाकर सामायिक आदि सत्कर्म करता है उसके त्रिवलित नामका दोष लगता है ॥१३५॥ जो दोनों हाथोंसे अपने मस्तकको स्पर्शकर सामायिक वा वन्दना करता है, अथवा संकुचित होकर मस्तकोंको जंघाओंके समीप ले जाकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके कुंचित दोष लगता है ॥१३६।। जो आचार्य वा अन्य मुनियोंके देखने पर तो सामायिक आदि क्रियाओंको अच्छी तरह करता है और उनके न देखने पर अपनी इच्छानुसार सब दिशाओंकी ओर देखता हुआ सामायिक आदि क्रियाओंको करता है उसके दृष्ट नामका दोष होता हैं ॥१३७।। जो गुरुकी दृष्टिसे छिपकर सामायिक आदि करता है अथवा पीछी आदिसे विना शोधे, विना देखे चंचल मनसे क्रियाओंको करता है उसके अदष्ट नामका दोष कहलाता है ॥१३८।। जो संघको प्रसन्न करनेके लिये अथवा संघसे भक्ति आदि करानेकी इच्छासे सामायिक वा वन्दना करता है उसके संघकरमोचन नामका दोष लगता है ॥१३९॥ जो उपकरण आदिको पाकर आवश्यक आदि क्रियाओंको करता है-विना उपकरण आदिके मिले जो नहीं करता उसके मद उत्पन्न करनेवाला आलब्ध नामका दोष लगता है ॥१४०॥ जो लोभके वशीभूत होकर उपकरण आदिकी इच्छासे सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओंको करता है उसके अनालध्ध नामका दोष लगता है ॥१४१॥ जो काल, व्यंजन, ग्रन्थ अर्थ ( अथवा मात्रा आदि ) आदिसे रहित सामायिक वा आवश्यकोंके पाठोंको पढ़ता है उसके पाप उत्पन्न करनेवाला हीन नामका दोष लगता है ॥१४२।। जो सामायिक वा वन्दनाको बड़ी शीघ्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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