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________________ ३५० श्रावकाचार-संग्रह बोया जानुप्रदेशं यः संस्पृश्य परिपोडय च । करोति वन्दनां तस्य दोषः स्यात्परिपीडितः ॥११८ यात्मानं च चलं कृत्वा संशयित्वा तनोति वा। तदोलामिव यः सोऽधीभंजेहोलायिताभिधम् ॥११९ कराङ्गष्ठं ललाटयों विधायाधीर्यथाङ्कशम् । करोति वन्दनां सोऽपि श्रयेद्दोषमिहाकुशम् ॥१२० कटिभागेन यः कृत्वा कच्छपस्येव चैष्टितम् । तद्विधत्ते स आप्नोति दोषं कच्छपरिगितम् ॥१२१ मत्स्यस्येव कटोभारोद्वर्तनं यो विधाय वा । पाश्र्वद्वयेन तां दध्यात् मत्स्योद्वतं लभेत सः ॥१२२ सूर्यादीनां हि यो दुष्टो भूत्वा तां मनसा भजेत् । क्लेशयुक्तेन वा तस्य मनोदुष्टोऽधिजायते ॥१२३ हस्ताम्यां स्वशरीरं यो बद्ध्वा वापि प्रपोड्य तम् । जानुद्वयं विधत्ते स वेदिकावद्धदोषभाक् ॥१२४ करोति वन्दनां योऽपि मरणादिभयान्वितः । सप्तभयेन वा त्रस्तो भयदोषं लभेत हि ॥१२५ गुर्वादिभ्यो विभीतो यः क्रियाकर्म करोति वै । अज्ञातपरमार्थोऽपि विभ्यद्दोषं लभेत सः ॥१२६ चातुर्वर्ण्यमहासङ्घद्भक्त्यादिगौरवेच्छया । यो बुधो वन्दनां दध्याल्लभते ऋद्धिगौरवम् ॥१२७ प्रकटीकृत्य माहात्म्यमात्मन आसनादिभिः । सुखार्य चाविधत्ते तद् ब्रजेद्दोषं स गौरवम् ॥१२८ गुर्वादिभ्यो प्रच्छन्नां यो वन्दनां कुरुते बुधः । परेषां चोरयंस्तंश्च स्तनितं दोषमाश्रयेत् ॥१२९ भूत्वातिप्रतिकूलो यो देवगुर्वादियोगिनाम् । वन्दनां कुरुते दोषं प्रत्यनोकं लभेत ना ॥१३० अन्यैः कृत्वापि प्रद्वषं वैरं वा कलहादिकम् । प्रदुष्टं यो भजेच्चक्र क्षन्तव्यं सो विधाय तत् ॥१३१ - जंघाओंका स्पर्श करता हुआ अथवा दवाता हुआ सामायिक करता है अथवा वन्दना करता है उसके परिपीड़ित नामका दोष होता है ॥११८|| जो अपने शरीरको झूलेके समान हिलाता हुआ सामायिक करता है अथवा जो अपने आत्माको चंचल रखता है, जिसके संदेह बना रहता हैसामायिक वन्दना वा उसके फलमें जो संदेह रखता है उसके दोलायित नामका दोष लगता है ॥११९॥ जो अज्ञानी अंकुशके समान अपने अंगूठेको ललाट वा मस्तक पर रखकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके अंकुशित नामका दोष लगता है ॥१२०।। जो कटिभागसे (कमरसे) कछुएके समान कुछ आगेको सरका कर वन्दना करता है उसके कच्छपरिगित नामका दोष लगता है ॥१२॥ जो मच्छके समान एक ही बगलसे अथवा दोनों बगलोंसे वन्दना करता है उसके मत्स्योद्वर्त नामका दोष लगता है ॥१२२।। जो दुष्ट आचार्य वा गुरुके ऊपर खेद प्रकाशित करता हुआ सामायिक वा वन्दना करता है उसके मनोदुष्ट नामका दोष लगता है ॥१२३।। जो दोनों हाथोंसे अपने शरीरको वा दोनों जंघाओंको बांधकर, दबाकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके वेदिकाबद्ध नामका दोष लगता है ।।१२४|| जो मरण भय आदि सातों भयोंसे डरकर सामायिक वा वन्दना करता है उसे भय नामका दोष लगता है ॥१२५।। जो परमार्थको न जानकर केवल गुरु आदिके डरसे ही सामापिक आदि क्रियाओंको करता है उसके विभ्यत् नामका दोष लगता है ॥१२॥ चारों प्रकारका महासंघ मेरी भक्ति करेगा, मेरा गौरव करेगा यही समझकर जो अज्ञानी सामायिक वा वन्दना करता है उसके ऋद्धिगौरव नामक दोष लगता है ।।१२७॥ जो अपने सुखके लिये आसन आदिके द्वारा अपने माहात्म्यको प्रगटकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके गौरव नामका दोष लगता है ॥१२८॥ जो गुरुको प्रसन्न करनेके लिये सबसे छिपकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके स्तनित नामका दोष लगता है ।।१२९।। जो देव, गुरु वा योगियोंके प्रतिकूल होकर उनकी आज्ञाको न मानकर सामायिक वा वन्दना करता है उसके प्रत्यनीक नामका दोष लगता है ।।१३०॥ जो दूसरोंके साथ द्वेष वैर वा कलह करके भी मन वचन कायसे न तो दूसरोंसे क्षमा कराता है न क्षमा करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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