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________________ ३४९ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार कायचेष्टां विधत्ते यस्त्यक्त्वा स्थानासनादिकम् । हस्तादिसंज्ञया तया भवद्दोषो व्रतस्य वै ॥१०४ कुर्वन्ति चित्तसङ्कल्पमशुभं बधबन्धजम् । समभावं परित्यज्य व्यतिचार व्रजन्ति ते ॥१०५ आदरेण विना योऽधीविधत्ते समयं शुभम् । प्रमादेन च शाठ्य न श्रयेद्दोष व्रतस्य सः ॥१०६ नित्यकर्माणि एकाग्रचेतसा यः करोति न । सामायिकादिजातानि तस्य दोषं लभेत सः ॥१०७ क्रियाकर्म विधत्त यस्त्यक्त्वातीचारपञ्चकान् । किल द्वात्रिंशद्दोषांश्च लभते सोऽव्ययं पदम् ॥१०८ गणिस्तान् मम दोषांश्च स्वपुण्याय प्ररूपय । वक्ष्येऽहं शृणु भो धीमन् कृत्वातिनिश्चलं मनः ॥१०९ अनाहत्श्चस्तब्धः स्थात्प्रविष्ट: परिपीडितः । दोलायितोऽङ्कशितोऽपि भवेत्कच्छपरिङ्गित ॥११० मत्स्योद्वर्तो मनोदुष्टो वेदिकाबद्ध एव हि । भयो विभ्यद्भवदृद्धि गौरवो गौरवस्तथा ॥१११ स्तनितः प्रतिनीकश्च प्रदुष्टस्तजितस्तथा। शब्दश्च हेलितश्च त्रिवलितश्चैव कुञ्चितः ॥११२ दृष्टोऽदृष्टो भवेत्सङ्घकरमोचन एव हि । आलब्धः स्यादनालब्धो होन उत्तरचूलिकः ॥११३ मूकश्च दर्दुरो दोषो भवेत्सुललितः सुहृत् । द्वात्रिंशत्प्रमितान् दोषांस्त्यक्त्वा सामायिकं भज ॥११४ क्रियते यत्क्रियाकर्म प्रादरेण विना नरैः । अल्पभावयुतैस्तद्धि अनाहत इवोच्यते ॥११५ विद्यादिवितो योऽधीरुद्धताशयसंयुतः । क्रियाकर्म विधत्ते यः स्तब्धदोषं श्रयेद् ध्रुवम् ॥११६ अत्यासन्नो हि यो भूत्वा सत्पञ्चपरमेष्ठिनाम् । कुर्यात्सामायिक दोषं प्रविष्टाख्यं लभेत सः ॥११७ मनोदुःप्रणिधान, अनादर और अस्मरण सामायिकके इन पाँच अतिचारोंको हे ज्ञानिन्, तू त्याग कर ।।१०२।। जो सामायिक करता हुआ भी अपने मौनव्रतको छोड़कर बुरे वचन (गाली, गलौच वा हिंसा आदि करनेवाले) कहता है उसके दुःख देनेवाला वचन दुःप्रणिधान नामका अतिचार लगता है ॥१०३।। जो सामायिक करता हुआ भी अपने स्थान वा आसनको छोड़कर हाथ वा अन्य किसीके इशारेसे शरीरकी चेष्टा करते हैं उनके व्रतमें कायदुःप्रणिधान नामका अतिचार लगता है ।।१०४।। जो सामायिक करते हुए भी समताभावको छोड़कर अपने मनमें वध बन्ध आदिसे उत्पन्न होनेवाला अशुभ संकल्प-विकल्प करते हैं उनके मनोदुःप्रणिधान नामका अतिचार लगता है ॥१०५॥ जो मूर्ख अत्यन्त प्रमादके कारण या शठतासे विना ही आदरके शुभ सामायिकको करता है उसके अनादर नामका अतिचार लगता है ॥१०६॥ जो सामायिकमें होनेवाले नित्य कर्मोंको चंचल हृदयसे करता है (चंचल हृदयके कारण कभी किसी क्रियाको व कभी किसी पाठको भूल जाता है) उसके अस्मरण नामका अतिचार लगता है ॥१०७॥ जो अपने समय पर पांचों अतिचारोंको छोड़कर और बत्तीस दोषोंको टालकर सामायिक करता है वह अवश्य ही मोक्षपद प्राप्त करता है ॥१०८।। प्रश्न-हे प्रभो ! पुण्य उपार्जन करनेके लिये उन दोषोंको कपाकर कहिये ? उत्तर-हे बुद्धिमान् ! मन लगाकर सुन, अब मैं उन दोषोंको कहता हूँ ॥१०९|| अनाहत, स्तब्ध, प्रविष्ट, परिपीड़ित, दोलायित, अंकुशित, कच्छपरिंगित, मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्यता, ऋद्धिगौरव, गौरव, स्तनित प्रतिनीक, प्रदुष्ट, तजित, शब्द, हेलित, त्रिवलित, कुंचित, दृष्ट, अदृष्ट, संघकरमोचन, आलब्ध, अनालब्ध, हीन, उत्तरचूलिका, मूक, दुर्दर, सुललित इन बत्तीस दोषोंको छोड़कर हे मित्र! तू सामायिक कर ॥११०-११४॥ जो मनुष्य सामायिककी क्रियाएँ विना आदरके अपने थोड़ेसे भाव लगाकर करते हैं उनके अनादर (अनादत) नामका दोष लगता है ॥११५।। जो मुर्ख विद्या आदिके अहंकारसे हृदयमें उद्धतता सामायिककी क्रियाओंको करता है उसके स्तब्ध नामका दोष अवश्य लगता है ॥११६|| जो परमेष्ठियोंके अत्यन्त समीप बैठकर सामायिक करता है उसके प्रविष्ट नामका दोष लगता है ॥११७॥ जो अपने दोनों हाथोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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