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________________ ३४८ श्रावकाचार-संग्रह इत्याद्यावश्यकं येऽपि प्रकुर्वन्ति बुघोत्तमाः । यान्ति स्वर्ग क्रमान्मोक्षं चानगारा इवाशु ते ॥९० सर्वमावश्यकं नित्यं क्षुल्लकव्रतधारिभिः । अनुष्ठेयं न मोक्तव्यं रोगक्लेशादिके क्वचित् ॥९१ वन्तहीनो गजो व्याघ्रो दन्ष्ट्राहीनः क्षमो न च । तथा नावश्यकेनापि होनः कर्मनिपातने ॥९२ वटबीजं यथाकाले चोप्तं भूरिफलप्रदम् । भवेदावश्यकं तद्वत्कृतं कालान्वितात्मनाम ॥९३ बोजमुप्तं यथाकाले न स्यात् सफलदायकम् । तथानावश्यकं पुंसामलं कर्मनिपातने ॥९४ आदौ मध्येऽवसाने च सद्घटिकाचतुष्टयम् । तद्दिनस्य समादाय मित्र ! सामायिकं भज ॥९५ अतिक्रमो न कर्तव्यो दक्षरावश्यकादिषु । व्यतिक्रमोऽप्यतोचारोऽप्यनाचारश्च दुस्सहः ॥९६ मनसा शुद्धिहीनेन भवेच्चातिकमोऽङ्गिनाम् । विषयादिप्रसक्तेन श्रयेज्जीवो व्यतिक्रमम् ॥९७ आवश्यके व्यतीचारः स्यादालसः प्रमादतः । व्रतस्य भङ्गतः पुंसामनाचारो जडात्मनाम् ॥९८ इमे दोषा बुधस्त्याज्या आवश्यकव्रतादिषु । सर्वव्रतविशुद्धयर्थं प्रतिज्ञातत्परैः सदा ॥९९ सर्वातिचारनिर्मुक्तं शुद्धं सामायिकं हि ये । भजन्ति जायते तेषामेनस्त्यक्तं महावृषम् ॥१०० भट्टारक ! व्यतीपातान् कथय त्वं समादरात् । शृणु भो ते व्यतीपातान् कथयामि विरूपकान् ॥१०१ त्रिधा दुःप्रणिधानानि वाक्कायमनसां बुध । अनादरोऽस्मरणं च त्यजातीचारपञ्चकम् ॥१०२ सामायिकसमापन्नो वक्ति दुर्वचनादिकम् । त्यक्त्वा मौनं भजेत्सोऽपि व्यतीपातं कुदुःखदम् ॥१०३ का स्वाध्याय करना चाहिए ॥८८|| उत्कृष्ट श्रावकोंको रात्रिके समय धर्म पालन करनेके लिये और अहिंसा आदि व्रतोंकी रक्षा करनेके लिये प्रतिदिन दो योग धारण करने चाहिये अर्थात् सुबह शाम दोनों समय ध्यान करना चाहिए ।।८९॥ जो उत्तम बुद्धिमान् ऊपर लिखे आवश्यकोंको प्रतिदिन करते हैं वे मुनियोंके समान शुभ स्वर्गमें जाते हैं और फिर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१०॥ क्षुल्लक व्रतोंको (एक देश व्रतोंको) धारण करनेवाले अणुव्रतियोंको प्रतिदिन समस्त आवश्यक करने चाहिए, तथा रोग क्लेश आदि आ जानेपर भी कभी नहीं छोड़ने चाहिए ।।९१|| जिस प्रकार दांत-रहित हाथी और दाढ-रहित बाघ अपने काम करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार आवश्यकोंको न करनेवाला मनुष्य अपने कर्मोको नाश नहीं कर सकता ॥९२॥ जिस प्रकार समय पर बोया हआ बटका बीज बहुतसे फलोंको फलता है उसी प्रकार अपने-अपने समय पर किये हुए आवश्यक भी बहुतसे फलोंको फलते हैं ।।१३।। जिस प्रकार असमयमें बोये हुए बटके बीज पर उत्तम फल नहीं लगते, उसी प्रकार आवश्यक भी यदि समय पर नहीं किये जायें तो उनसे कर्म नष्ट नहीं हो सकते ॥९४|| इसलिये हे मित्र ! सबेरे, दोपहर और शामको तोनों समय चार-चार घड़ी पर्यन्त प्रतिदिन सामायिक करना चाहिये ॥९५।। चतुर पुरुषोंको इन आवश्यक कार्यों में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और असह्य अनाचार कभी नहीं करना चाहिये ॥१६॥ अपने मनसे शुद्धताकी कभी करना अतिक्रम कहलाता है और विषयोंमें आसक्त होना गृहस्थोंके लिये व्यतिक्रम कहलाता है ।।९७|| प्रमादके कारण आवश्यकोंमें वा चारित्रमें आलस करना अतिचार है और अत्यन्त मूर्ख मनुष्य जो व्रतोंका भंग कर देते हैं उसे अनाचार कहते हैं ॥९८॥ अपनी प्रतिज्ञामें तत्पर रहनेवाले बुद्धिमानोंको समस्त व्रतोंको विशुद्ध रखनेके लिये आवश्यकोंमें तथा व्रतादिकोंमें अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार आदि दोषोंका त्याग कर देना चाहिए ॥९९।। जो समस्त अतिचारोंको छोड़कर शुद्ध सामायिक करते हैं उनको समस्त पापोंसे रहित महाधर्मकी प्राप्ति होती है ।।१००।। प्रश्नहे स्वामिन् ! कृपाकर मेरे लिए उन अतिचारोंका निरूपण कीजिए ? उत्तर--हे वत्स ! मैं उन दुःख देनेवाले अतिचारोंको कहता हूँ, तू चित्त लगाकर सुन ॥१०१।। वचनदुःप्रणिधान, कायदुःप्रणिधान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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