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________________ ३४७ प्रश्नोत्तरत्रावकाचार ये सत्पश्चनमस्कारान्न जपन्ति दुराशयाः । वदनं विलवत्तेषां महापापाकरं भवेत् ॥७७ सामायिकमहामन्त्रस्तवनादिकगोचरम् । धर्मध्यानं न कुर्वन्ति श्वभ्रे तेऽघात्पतन्त्यहो ॥७८ इति मत्वा जप त्वं च मन्त्रराजं पदे पदे । सुखे दुःखे भये मार्गे व्यधौ च शयनासने ॥७९ यथाप्यणोः परं नाल्पं न महद्गगनात्परम् । तथा पञ्चनमस्कारमन्त्रान्मन्त्रो न विद्यते ॥८० शाकिनीगृहदुर्व्याधिचौरबन्धनपाविजम् । पुंसां नश्याद् भयं सर्व मन्त्रराजप्रतापतः ॥८१ सप्तव्यसनसंसक्ता महापापान्विता नराः । मरणे सर्वमन्त्रेशं प्राप्य स्वर्गे गताः शुभात् ॥८२ सल्लक्ष्मीगृहदासीव वशं याति विकिनाम् । मन्त्रराजप्रसादेन दारिद्रयं च पलायते ॥८३ चिन्तामणिनिधिकल्पद्रुमकामदुधादयः । मन्त्रराजस्य सर्वेऽपि मन्ये भृत्याश्चिरन्तनाः ॥८४ इन्द्रतीर्थेशचक्रयादिभुवां लक्ष्मी भजन्त्यहो। सारं पञ्चगुरूणां सद्ध्यानादेकापतो नराः ॥८५ किमत्र बहुनोक्तेन सुखं लोकत्रयोद्भवम् । प्राप्य मुक्ति प्रयान्त्येव बुधा मन्त्रप्रभावतः ।।८६ अहोरात्र्यादिजातस्य पापस्य क्षयकारणम् । प्रतिक्रमद्वयं कार्यमुभयोः कालयोः बुधैः ॥८७ धर्मध्यानादिसिद्धयर्थं सत्स्वाध्यायचतुष्टयम् । यथाशक्ति हि कर्तव्यं नित्यमेव नरोत्तमैः ॥८८ योगद्वयमनुष्ठेयमुत्कष्टश्रावकैः सदा । रात्रौ धर्माय चाहिंसावतरक्षादिहेतवे ॥८९ सामायिक नहीं करते, मदा पापकार्योकी चिन्तामें ही लगे रहते हैं वे नीच बैल हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं ।।७६।। जो अज्ञानी इस श्रेष्ठ पंच नमस्कार मन्त्रका जाप नहीं करते उनका मुंह महापाप करनेवाले बिलके समान समझना चाहिए ॥७७|| जो मनुष्य सायायिक, महामन्त्र, स्तवन आदिसे भरपूर धर्मध्यानको नहीं करते हैं वे पापके कारण नरकमें ही पड़ते हैं ॥७८॥ यही समझकर तू सुखमें, दुःखमें, भयमें, मार्गमें. सोनेमें, बैठने में सर्व स्थानोंमें पद पदपर इस मन्त्रराज (पंच नमस्कार मन्त्रका) का जप कर ॥७९॥ जिस प्रकार परमाणुसे कोई छोटा नहीं है और आकाशसे अन्य कोई बड़ा नहीं है उसी प्रकार पंचनमस्कारमन्त्रसे बढ़कर और कोई मन्त्र इस संसारमें नहीं है ॥८०॥ इस मन्त्रराजके प्रतापसे शकिनी, भूत, पिशाच, रोग, चोर, राज्यबन्धन आदि किसी प्रकारका भय मनुष्योंको नहीं होता है ।।८।। जो जीव सातों व्यसनोंमें आसक्त थे और महा पापी थे वे भी मरनेके समय सब मन्त्रोंके स्वामी इस पंच नमस्कार मन्त्रको जपकर शुभ कर्मके उदयसे स्वर्गमें जा पहुँचे हैं ।।८२॥ इस मन्त्रराजके प्रतापसे श्रेष्ठ लक्ष्मी भी विवेकी पुरुषोंके घरकी दासीके समान वश हो जाती है और दरिद्रता सब नष्ट हो जाती है ।।८३।। मुझे तो ऐसा निश्चय है कि चिन्तामणि रत्न, निधियाँ, कल्पवृक्ष और कामधेनु आदि सब इस पंच नमस्कार मन्त्रके सदा कालसे चले आये सेवक ही हैं ।।८४॥ जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे सारभत पंच परमेष्ठियोंका ध्यान करते हैं वे इन्द्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकरको सम्पदाको अवश्य प्राप्त होते हैं ॥८५॥ बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिए कि मन्त्रके प्रभावसे तीनों लोकोंमें उत्पन्न होनेवाले जितने सुख हैं उन सबको पाकर बुद्धिमान लोग मोक्षमें ही विराजमान होते हैं ।।८६॥ दिन रातमें जो पाप उत्पन्न होते हैं उन सबके क्षय होनेका कारण प्रतिक्रमण है इसलिये बुद्धिमानोंको शाम सवेरे दोनों समय प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिये ।।८७॥ उत्तम गृहस्थोंको धर्मध्यानकी सिद्धिके लिये अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिदिन चारों प्रकार १. चारों प्रकारके स्वाध्यायसे बाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नायसे अभिप्राय जान पड़ता है क्योंकि धर्मोपदेश साधारण गृहस्थोंका मुख्य कार्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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