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________________ श्रावकाचार-संग्रह नाशं पूजितानां स विधत्ते पापकर्मणाम् । नूतनानि न गृह्णाति सामायिकबलाद् गृही ॥६३ महापुण्यं समाधत्ते नाकराज्यादिकारणम् । समचित्तवशाद्धीमान् सामायिकसमन्वितः ॥६४ सामायिकं विधत्ते यो भव्यः शुभवतादिभाक् । याति निर्वाणमेकं स प्राप्य षोडशमं दिवम् ॥६५ मुनिः सामायिकेनैवभव्यः शास्त्रवतान्वितः । अत्यन्तसमभावेन याति ग्रेवेयकेऽग्रिमे ॥६६ सामायिकसमो धर्मो न स्याद् सद्गृहिणां क्वचित् । सर्वसङ्गपरित्यागात्सकलाशुभवर्जनात् ॥६७ इति मत्वा बुधैः पूर्व प्रातरुत्थाय प्रत्यहम् । सामायिकं सुसम्पूर्ण कर्तव्यं धर्महेतवे ॥६८ पश्चाद् गृहादिकर्माणि कर्तव्यानि यतो जनैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ॥६९ मध्याह्नपि तथा दक्षः कृत्वा सामायिकं शुभम् । कर्तव्यं भोजनं पश्चाद्धर्मसंवेगकारणम् ।।७० प्रविधायापराहेपि सारं सामायिकादिकम् । कुर्वीध्वं शयनं पश्चाद्धो बुधाः धर्मसिद्धये ॥७१ दिने दिने सदा तद्धि कार्य वारत्रयं नरैः । प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यं महारोगादिकेऽथवा ॥७२ कालत्रयेषु कुर्वन्ति धर्मध्यानादिकं बुधाः । हत्वा हिंसादिजं पापं पुण्यं समर्जयन्ति ते ॥७३ कुबह्वारम्भद्रव्याविभूतः सामायिके न भो। याति संसारतीरं च गृही सद्यानपात्रवत् ॥७४ सामायिकादि सत्सूत्रं पाठीकतुं क्षमा न ये । शतपञ्चाशनमस्कारं ते जपन्त्वेकचित्ततः ॥७५ सामायिकं न कुर्वन्ति युक्ता गेहरथेऽधमाः । पापचिन्तान्विता नित्यं वृषभास्ते न संशयः ॥७६ कर्मोका नाश करता है और नये कर्मोको ग्रहण नहीं करता है ॥६३।। सामायिक करनेवाला बुद्धिमान चित्तमें समता धारण करनेके कारण स्वर्ग राज्यका कारण ऐसा महापुण्य उपार्जन करता है ॥६४॥ जो भव्य जीव शुभ व्रतादिको करता है वह सोलहवें स्वर्गकी सम्पदा पाकर मोक्षमें जा विराजमान होता है ।।६५।। शास्त्रोंको जाननेवाला और व्रतोंको पालन करनेवाला अभव्य मुनि भी सामायिकके कारण अत्यन्त समताभाव धारण करता है इसलिए वह अग्रिम (उत्तम) ग्रंवेयकमें जाकर जन्म लेता हैं ॥६६॥ सामायिकमें समस्त परिग्रहोंका त्याग हो जाता है और समस्त अशुभ कार्य छूट जाते हैं अतः गृहस्थोंके लिए सामायिकके समान अन्य कोई भी धर्म किसी तरह नहीं हो सकता ॥६७।। यही समझकर बुद्धिमानोंको प्रतिदिन सबेरे ही उठकर धर्म धारण करनेके लिए सबसे पहिले पूर्णरीतिसे सामायिक करना चाहिए ॥६८॥ तदनन्तर मनुष्योंको घरके काम करने चाहिए क्योंकि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों में सबसे पहिले धर्म पुरुषार्थ ही कहा है ॥६९।। इसी प्रकार चतुर पुरुषोंको दोपहरके समय भी पहिले धर्म और संवेगका कारण ऐसा शुभ सामायिक करना चाहिए और फिर भोजन करना चाहिए ॥७०|| तथा बुद्धिमानोंको धर्मकी सिद्धिके लिये शामके समय में भी पहिले सारभूत सामायिक करना चाहिए और फिर शयन करना (सोना) चाहिए ।।७१।। इस प्रकार प्रत्येक गृहस्थको प्रतिदिन तीन तीन बार सामायिक करना चाहिए और प्राण नाश होनेपर भी तथा महा रोगादिक होनेपर भी इस सामायिकके नियमका भंग नहीं करना चाहिए ॥७२।। जो बुद्धिमान सवेरे दोपहर शाम तीनों समय धर्मध्यान करते हैं, तथा सामायिक वा जप आदि करते हैं वे हिंसा आदिसे उत्पन्न हुए समस्त पापोंको नष्टकर महापुण्य उपार्जन करते हैं ।।७३॥ सामायिकमें बहुतसे आरम्भ और बहुतसे परिग्रहका भार भरा नहीं रहता, इसलिए सामायिक करनेवाले गृहस्थ हलके जहाजके समान शीघ्र ही संसाररूपी समुद्रके पार हो जाते हैं ॥७४।। जो सामायिकके सूत्रपाठोंका पाठ नहीं कर सकते उन्हें एकाग्रचित्त होकर एकसौ पचास वार पंच नमस्कारमन्त्रका जाम करना चाहिये ।।७५।। जो गृहस्थाश्रमरूपी रथमें लगे रहनेपर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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