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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार गृहस्थो मुनितां याति सर्वभोगाविवर्जनात् । गृहस्थानीचतां नित्यं मुनिस्तु भोगवाञ्छया ॥१३५ इति मत्वा त्वया धीमन् ! विधेया स्वल्पभोगवा । भोगोपभोगसत्संख्या धर्ममुक्तिसुखाप्तये ॥१३६ अतीचारविनिर्मुक्तां भोगसंख्यां भजन्ति ये । गत्वा षोडशमे नाके क्रमाद्यान्ति शिवालयम् ॥१३७ प्रभो ! मह्यं दयां कृत्वा व्यतीपातानिरूपय । शृणु वत्सैकचितेन वक्ष्येऽहं ते व्यतिक्रमान् ॥१३८ स्याद्विषयानुपेक्षा हि ततोऽनुस्मृतिरुच्यते । अतिलौल्यं भवेच्चातितृषा चानुभवोङ्गिनाम् ॥१३९ य उपेक्षां परित्यज्य भुङ्क्ते भोगाननारतम् । आदरात्तस्य जायेत चानुपेक्षाव्यतीक्रमः ॥१४० यो भुक्त्वा विषयान् पश्चाद्दधेऽनुस्मरणं शठः । अतीचारो भवेत्तस्य सुखसौन्दर्यलक्षणम् ॥१४१ कामातुरोऽतिगद्धया यो भुङ्क्ते भोगान्पुनश्च तान् । इच्छेच्च सोऽतिलोभेन भजेदवतव्यतिक्रमम् ॥१४२ भाविकालेऽपि भोगान् यो वाञ्छत्यत्यन्तलोभतः । अतितृषाव्यतीपातो व्रतस्य जायते पुनः ॥१४३ भुङ्क्ते भोगादिकं योऽत्यासक्त्याऽकाले यदा सदा । गुणवतस्य तस्थाप्यनूभवः स्यादतिक्रमः ॥१४४ स्वल्पं भोगादिकं योऽपि सेवन्ते गहमेधिनः । कामपीडा व्यथाथं ते न लभन्ते व्यतिक्रमान् ॥१४५ चौरो मृत्युं समीहेत कोट्टपालात् यथा तथा । सदृष्टिविषयान् भुङ्क्ते वृत्ताचरणयोगतः ॥१४६ शिवसुखगहमार्ग सर्वभोगस्य नित्यं, शुभवनघनमेघं पापवृक्षवजाग्निम् । अतिसुखगुणगेहं स्वर्गसोपानभूतं कुरु बुध परिमाणं चोपभोगस्य मुक्त्यै ॥१४७ भी मुनिके समान माना जाता है और भोगोंकी इच्छा करता हुआ मुनि भी गृहस्थके समान नोच श्रेणीमें गिना जाता है ॥१३५॥ हे विद्वन् ! यही समझकर तुझे धर्म मोक्ष और सुखकी प्राप्तिके लिये थोड़ेसे भोगोंमें सन्तोष देनेवाली भोगोभोगोंकी संख्या नियत कर लेनी चाहिये ॥१३६॥ जो बुद्धिमान अतीचारोंको छोड़कर भोगोंकी संख्या नियत करते हैं वे सोलहवें स्वर्गके सुख भोगकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१३७॥ प्रश्न-हे प्रभो ! मुझपर दयाकर उन भोगोपभोगपरिमाणके अतीचारोंको कहिये । उत्तरहे भव्य ! तू चित्त लगाकर सुन, मैं उन अतीचारोंको कहता हूँ ॥१३८॥ विषयानुपेक्षा, अनुस्मृति, अतिलोल्य, अतितृष्णा और अनुभव ये पांच भोगोपभोग परिमाणके अतिचार गिने जाते हैं ॥१३९।। जो उपेक्षा त्याग वा उदासीनताको छोड़कर आदरपूर्वक सदा भोगोपभोगोंको भोगता रहता है उसके विषयानुपेक्षा (विषयोंसे उदासीन न होना) नामका अतिचार लगता है ॥१४०।। जो मूर्ख विषयोंको भोगकर पीछेसे उनके सुख और सुन्दरताका स्मरण करता है उसके अनुस्मरण नामका अतिचार लगता है ॥१४१॥ जो अत्यन्त कामातुर और लोलपी होकर उन भोगोंका भोग करता है और अत्यन्त लोभके कारण फिर भी उनकी इच्छा करता है उसके अतिलौल्य नामका अतिचार होता है ॥१४२।। अत्यन्त लोलुपताके कारण जो आगामी कालके लिये भी भोगोंकी इच्छा करता है उसके व्रतमें अतितृष्णा नामका अतिचार लगता है ॥१३॥ जो अत्यन्त आसक्त होनेके कारण जब कभी असमयमें भी भोगोंका भोग करता है उसके भोगोपभोग परिमाण नामके गुण व्रतमें अनुभव नामका अतिचार लनता है ।।१४४॥ जो गृहस्थ केवल काम-पीड़ाको दूर करनेके लिये थोड़े समयसे भोगोंको सेवन करते हैं उनके ये अतिचार नहीं लगते ॥१४५॥ जिस प्रकार चोर कोतवालसे मृत्यु चाहता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे विषयोंका सेवन करते हैं ॥१४६॥ यह समस्त भोगोपभोगका परिमाण मोक्षके सुखका कारण है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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