________________
३४०
श्रावकाचार-संग्रह
सकलगुणसमुद्रं दोषवृक्षानलं वे, बुधजनपरिसेव्यं नाकधामैकमार्गम् । नरकगृहकपाटं पापसन्तापदूरं, भज मनुज गुणाढ्यं सद्व्रतं त्वं त्रिघा भो ॥१४८ इति श्रीभट्टारक सकलकीर्तिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे गुणव्रतत्रयप्ररूपको नाम सप्तदशमः परिच्छेदः ॥ १७॥
पुण्यरूपी वनको बढ़ाने के लिये प्रबल मेघ है, पापरूपी वृक्षको जलाने के लिये अग्नि है, अनन्तसुखरूपी गुणका कारण है और स्वर्गकी सीढियोंके समान है इसलिये हे विद्वन् ! मोक्ष प्राप्त करने के लिये तू भोग और उपभोगोंका परिमाण सदाके लिये नियत कर || १४७ || हे भव्य जीव ! यह भोगोपभोग परिमाण नामका व्रत समस्त गुणोंका समुद्र है, दोषरूपी वृक्षों को जलाने के लिये अग्नि है, विद्वान् लोग भी इसकी सेवा करते हैं, स्वर्ग मोक्षका यह एक अद्वितीय कारण है, नरकरूपी घरको बन्द करनेके लिये किवाड है, पाप तथा सन्तापों को दूर करनेवाला है और गुणों से परिपूर्ण है । इसलिये हे मित्र ! तू मन वचन कायसे इस व्रतका पालन कर ॥ १४८ ॥
1
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्तिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में तीनों गुणव्रतों का निरूपण करनेवाला यह सत्रहवां परिच्छेद समाप्त हुआ ||१७||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org